विचार कभी सामान्य नहीं होते

विचार तो मन में आते हैं लेकिन हम उन्हें सही दिशा नहीं दे पाते। अपनी आंखों के सामने हर पल कुछ नया देखते हैं लेकिन उसके बारे में सोच नहीं पाते, अगर सोचते हैं तो शब्दों में ढ़ालना मुश्किल है। शब्दों में ढ़ाल भी दें तो उसे मंच देना और भी मुश्किल है। यहां कुछ ऐसे ही विचार जो जरा हटकर हैं, जो देखने में सामान्य हैं लेकिन उनमें एक गहराई छिपी होती है। ऐसे पल जिन पर कई बार हमारी नजर ही नहीं जाती। अपने दिमाग में हर पल आने वाले ऐसे भिन्न विचारों को लेकर पेश है मेरा और आपका यह ब्लॉग....

आपका आकांक्षी....
आफताब अजमत



Sunday, December 30, 2012

कैसे रुकेगा बलात्कार


बलात्कार, दामिनी, बदनसीब...न जाने कितने शब्दों की संज्ञा दे रहे हैं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया वाले। बड़े-बड़े विद्वानों को स्टूडियो में बैठाकर लंबी-लंबी बहस। कोई उस बहादुर लड़की को चिरैया की उपाधि दे रहा है तो कोई देश को शर्म से सर झुकने की बात चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा है। निचोड़ एक है, महिलाओं की सुरक्षा और समाज में उनका मान। इस मान के लिए हालांकि लड़ाई लंबी रही है लेकिन एक छोटी सी बात ही यहां रोड़ा बन जाती है।

बात होती है बाजार की। महिला आज के समय में बाजार की सबसे बड़ी मांग है। उसका जिस्म ही उत्पादों के बेचने का रास्ता तय करता है। बड़े-बड़े कारपोरेट घराने, जिनमें भारतीय भी शामिल हैं, महिलाओं के जिस्म की नुमाइश के आधार पर अपनी बैलेंस शीट तैयार करते हैं। इस नुमाइश में कहीं से भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कम नहीं है। दो मिनट के लिए यहां दामिनी के साथ हुए अत्याचार को बेहद शाब्दिक लहजे में पेश किया जाता है तो अगले ही पल आने वाले ब्रेक में उसी दामिनी के कपड़े उतरते हुए अर्धनग्न हालत में जिस्म की नुमाइश करते हुए दिखाया जाता है। कल रात अचानक न्यूज चैनल देखते हुए यह विचार बरबस ही मन को बेचैन कर गया। जैसे ही चैनल ने ब्रेक की घोषणा की तो अगले दो पलों में एक फर्श का विज्ञापन अर्श तक महिलाओं के जिस्म की नुमाइश करता नजर आया। नुमाइश भी इस कदर कि खुली हुई टांगे दिखाकर एक फर्श को बेहतर साबित करने की होड़। क्या कर रहे हैं हम, क्या दिखा रहे हैं और महिला को क्या सम्मान दे रहे हैं???

इन सवालों को जवाब तलाशने निकलों तो शायद पूरा युग बीत जाएगा। महिला आज भी हमारे समाज ही नहीं बाजार के लिए भी महज एक उत्पाद विक्रेता है। जिसके जिस्म को हम जितना बेहतर तरीके से जनता के सामने पेश कर देंगे, वह उतना ही उनके मन में उतर जाएगा।

सवाल आपके लिए छोड़ रहा हंू, आखिर क्या इस तरह से हम महिलाओं को सम्मान दिला पाएंगे? उनकी लुटती हुई आबरू को समाज का इज्जत वाला लबादा ओढ़ा पाएंगे?

Friday, December 28, 2012

आओ मिलें भारत के बेतुके लोगों से

भारत आजाद कराने के लिए गांधी जी ने जितनी जद्दोजहद यानी आंदोलन और समर्पण किया, एक भारत देश का सपना देखा लेकिन हे गांधी(हे भगवान स्टाइल) तेरे देश के नेताओं और बुद्धिजीवी वर्ग को ये क्या हो गया? जनता के वोट के लालच में इस कदर अंधे हो गए कि दो पल में वह अपना ऊपर से नियंत्रण खो देते हैं. यह नियंत्रण खोना तो ठीक भी कहा जाए लेकिन इससे कितने लोगों यानी उनके वोट बैंक की भावनाओं को ठेस पहुंचती है, ये तो इन लोगों के बयान की गहराई से आप भी समझ सकते हैं....

बेतुका भाषण संख्या 1-
आंध्र प्रदेश में मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन पार्टी के विधायक अकबरुद्दीन ओवैसी ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की तुलना मुंबई अटैक में फांसी पर चढ़ाए गए अजमल कसाब से कर दी। मोदी पर निशाना साधते हुए ओवैसी ने कहा, 'उस बच्चे अजमल कसाब को फांसी पर लटका दिया गया, ठीक किया। उसने दो सौ बेकसूर लोगों की जान ली थी। लेकिन, गुजरात में दो हजार मुसलमानों की हत्या के गुनहगार नरेंद्र मोदी को फांसी क्यों नहीं दी?Ó अपने भाषण में ओवैसी ने आगे कहा, 'पाकिस्तानी है तो हिंदुस्तानी को मारने पर फांसी। हिंदुस्तानी है तो हिंदुस्तानी को मारने पर देश की गद्दी... अगर देश में इंसाफ है तो कसाब की तरह मोदी को भी ऐसी सजा दी जाए।Ó

बेतुका भाषण संख्या 2-
सीपीएम के नेता अनीसउर्रहमान ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री से पूछा है कि यदि कोई उनका बलात्कार कर दे तो वे कितना मुआवजा लेंगी? अनीसुर्रहमान ने कहा, 'सरकार कहती है कि वो लड़कियों, किसानों और गरीबों सबका ख्याल रखती है। तो लड़कियों का ख्लाय किस तरह रखा जा रहा है, रोज लड़कियों से बलात्कार किया जा रहा है। ममता बनर्जी बलात्कार पीडि़तों से अपने घर को सजा रही हैं। जब हम सत्ता में थे तब ममता बनर्जी बलात्कार पीडि़तों को लेकर रॉयटर्स बिल्डिंग आती थीं और न्याय मांगती थी। तब हम कहते थे कि इन लड़कियों से काम नहीं चलेगा, किसी और अच्छी लड़की को लाओ, असल में खुद को ही ले आओ, तुम लोगों के बीच जाकर कह सकती हो कि मेरा बलात्कार हुआ है। मैं दीदी से पूछता हूं कि वो बलात्कार पीडि़तों को 20 हजार रुपये का मुआवजा दे रहीं हैं। लेकिन वो खुद कितना मुआवजा लेंगी। यदि कोई उनका बलात्कार कर दे तो फिर मुआवजा कितना होगा?Ó

बेतुका भाषण संख्या 3-
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत का कहना है कि नैतिक मूल्यों के पतन के चलते महिलाओं के खिलाफ अपराध बढ़ रहे हैं और इसकी वजह से दिल्ली में रेप जैसी वारदात होती हैं। दिल्ली से छपने वाले मेल टुडे टैब्लॉइड के मुताबिक, मोहन भागवत ने उज्जैन संभाग के शाजापुर में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ गौ-अभयारण्य की आधाराशिला रखे जाने के मौके पर उन्होंने कहा, 'घर में गाय पालने से लोगों में नैतिक मूल्य बढ़ेंगे। गाय हमारी माता है। गाय की सेवा मानव जाति की सेवा के समान है। इससे हमारे भीतर सेवा की भावना जगेगी और नैतिकता बढ़ेगी।Ó रेप को लेकर देश में जहां गंभीर बहस हो रही है, ऐसे में संघ प्रमुख का बेतुका बयान समझ से परे है। इससे पहले हरियाणा में बढ़ते रेप के मामले पर खाप ने कहा था कि राज्य में बलात्कार जैसे अपराध इसलिए बढ़ रहे हैं, क्योंकि लोग चाउमिन खा रहे हैं। इस बयान में कहा गया था कि चाउमिन खाने पर युवकों का हॉर्मोंन बढ़ रहा है, जिसके कारण वह रेप करने के लिए उत्तेजित हो जाते हैं।

बेतुका बयान संख्या 4-
राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के पुत्र और जंगीपुर से कांग्रेस के सांसद अभिजीत मुखर्जी ने गैंग रेप के खिलाफ दिल्ली में चल रहे विरोध प्रदर्शन को लेकर एक विवादित बयान दे दिया है। उन्होंने कहा कि हर मुद्दे पर कैंडल मार्च करने का फैशन चल पड़ा है। अभिजीत ने कहा कि लड़कियां दिन में सज-धज कर कैंडल मार्च निकालती हैं और रात में डिस्को जाती हैं।

बेतुका बयान संख्या 5-
संजय निरुपम ने स्मृति पर निजी हमले करने शुरू कर दिए। उन्होंने कहा, 'स्मृति आप मुझे मेरा अतीत याद दिला रही हैं, लेकिन आप क्या थीं? आप तो पैसों के लिए टीवी पर ठुमके लगाती थीं और आज राजनीतिक विश्लेषक बन गईं।Ó न्यूज़ चैनल के एंकर ने निरुपम को निजी हमले करने से रोका, स्मृति ने भी उनकी बातों पर ऐतराज जताया। जब संजय निरुपम नहीं रुके तो स्मृति ने कहा,' कांग्रेस सांसद छिछोरेबाजी पर उतर आए हैं। निरुपम और उन बदमाशों में कोई अंतर नहीं जो दिल्ली की सड़कों पर छेड़छाड़ और बलात्कार करते हैं।Ó

बेतुका बयान संख्या 6-
राजस्थान में ही दलित समाज के सम्मेलन में राज्यसभा की पूर्व सदस्य जमनादेवी बारुपाल ने लड़कियों को पूरी तरह ढंके रहने की नसीहत दे डाली। उन्होंने यहां तक कहा कि कम कपड़े पहनने से लड़कियों की तरफ पुरुष आकर्षित होते हैं। इसमें पुरुषों का क्या दोष है।

बेतुका बयान संख्या 7-
पुलिस विभाग के खरगोन में सेमिनार में पहुंची महिला कृषि वैज्ञानिक ने महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता विषय पर बोलते हुए पीडि़ता को ही जिम्मेदार ठहरा दिया। उन्होंने कहा- महिलाएं ही पुरुष को उकसाती हैं। डॉ. शुक्ला यहीं नहीं रुकीं। उन्होंने और भी सवाल उठाए। उनका सवाल था 10 बजे रात को लड़की घर से बाहर क्या कर रही थी? फिर कहा- ब्वॉय फ्रेंड के साथ रात को बाहर निकलेगी तो यही होगा। पुलिस कहां तक संरक्षण देगी। उन्होंने पीडि़ता के प्रतिरोध को भी उसका दुस्साहस बता दिया। उनका कहना था हाथ पांव में दम नहीं, हम किसी से कम नहीं। छह लोगों से घिरने पर लड़की ने चुपचाप समर्पण क्यों नहीं कर दिया। कम से कम आंते निकालने की नौबत तो नहीं आती।

महोदय, आप भी आजाद भारत के आजाद परिंदे हैं। इन महानुभावों के बेतुके बयानों पर आप भी बेतुकी राय दे सकते हैं।

Thursday, December 27, 2012

सांप्रदायिक सौहार्द के दुश्मन थे अंग्रेज

अंग्रेजों ने हमारे मुल्क को सबकुछ दिया। सोने की चिडिय़ा को कंगालों की फौज में तब्दील करने में भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। इन सबके बीच सबसे अहम बात है, कि अंग्रेजों ने एक ऐसा दर्द हमेशा के लिए दे दिया, जिसकी दवा कोई नहीं। शायराना अंदाज में कहते हैं न कि दर्द भी ऐसा दिया, जिसकी दवा कोई नहीं। यह दर्द है सांप्रदायिकता का दर्द। इतिहासकारों ने इसमें अहम रोल प्ले किया है। इतिहास ने हमेशा से ही ऐसे तथ्यों को वरीयता दी जो कि सांप्रदायिकता को बढ़ावा देते हैं। जबकि ऐसे तथ्य हमेशा के लिए गायब कर दिए, जो कि हमारे देश को एकता के सूत्र में पिरोते हैं।

मैं भी इस मामले में प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन मरकडेय काटजू के विचारों से सहमत हंू। एक कार्यक्रम में उन्होंने भारतीय इतिहास पर सवाल उठाते हुए कहा है कि 'भारतीय इतिहासकार अंग्रेजों की बात को ही आगे बढ़ा रहे हैं, जिन्होंने इतिहास में हिंदू और मुस्लिमों को लड़ाने की बातें लिखीं।' उन्होंने यह भी कह दिया कि देश में हिंदू और मुसलमान 1857 तक धर्मनिरपेक्ष थे लेकिन गलत इतिहास के कारण अब उनमें से 80 फीसद सांप्रदायिक हैं। सांप्रदायिकता के लिए उन्होंने नेताओं को भी जिम्मेदार बताया। उन्होंने कहा, अंग्रेजों ने उन बातों का जिक्र इतिहास में दर्ज नहीं किया, जिससे देश में सौहार्द का माहौल बनता। तर्क दिए कि इतिहास की किताबों में बताया जाता है कि महमूद गजनवी ने सोमनाथ मंदिर तोड़ा जबकि उनके बाद पीढ़ी ने धर्मनिरपेक्ष होकर मंदिर बनाने को जमीन दान दी। नवाब अवध होली खेलते थे और ईद में उनके यहां हिंदू जाया करते थे। टीपू सुल्तान 156 मंदिरों को सालाना अनुदान दिया करते थे। ये सभी बातें इतिहास की किताबों से नदारद हैं और उन्हें कभी बताने की कोशिश भी नहीं हुई।

सांप्रदायिकता के इस मामले पर आज कॉलेज के दिनों की गुरुजी की सुनाई हुई चंद पंक्तियंा भी याद आ रही हैं....

कहीं मंदिर बना बैठे, कहीं मस्जिद बना बैठे
अरे, तुमसे तो अच्छी है उन परिंदों की जात
जो कभी मंदिर पे जा बैठे, कभी मस्जिद पे जा बैठे।।

Sunday, December 23, 2012

औरतों को कहां मिला हक

औरत, तेरी यही कहानी...आज फिर वो शब्द याद आ गए। मामला जब औरत की आजादी का आता है तो कई तरह की प्रतिक्रियाएं आम हैं। कोई इसे धार्मिक तौर पर देखता है तो कोई सामाजिक तौर पर। कोई बड़ी महिला हस्तियों का वास्ता देकर इस सच्चाई से मुंह चुरा लेता है तो कोई इस पर शून्य भाव दिखाकर उदासीन नजर आता है। आखिर औरत को हमने आजादी दी है या नहीं। क्या औरत आज भी जिंदगी और समाज के बोझ उठा रही है, झेल रही है उस पुरुष मानसिकता को, जिसमें केवल पुरुष का ही वर्चस्व कायम रहा है। ऐसे तमाम सवाल एक शख्सियत से बातचीत के दौरान कायम हुए हैं, जिन पर आज आपको भी बहस करने की जरूरत है।

महिला, हक और जरूरत। तीनों एक दूसरे के पूरक हैं। हर किसी ने महिला पर अपना हक और अपनी जरूरत तो जरूर पूरी की लेकिन कभी उसे उसका हक देने का वादा पूरा नहीं किया। कई अक्खड़ किस्म के लोग महिला को नौकरियों में आरक्षण, राजनीति में आरक्षण के बहाने अपनी जय जयकार में विश्वास करते हैं। धार्मिक नजरिए से भी इस्लाम में पर्देदारी को गलत करार दिया जाता है। हिंदू धर्म में भी तो परदा होता है। एक महिला अगर बाहर निकलती है तो उसकी कामयाबी को किस नजरिए से देखा जाता है, उसे सब जानते हैं। महिला आज भी गुलाम है। गुलाम, वर्चस्व वाले पुरुष समाज की, गुलाम धार्मिक रीतियों का रोना रोने वालों की, गुलाम हम सबकी...कभी किसी ने यह नहीं सोचा कि हमने महिलाओं को आजादी कितनी दी है। हम उन्हें अपने से ऊपर की पोस्ट तो दे सकते हैं लेकिन इस पोस्ट पर पहुंचने के बाद उन्हें क्या झेलना पड़ता है, कहना मुश्किल है। एक महिला अधिकारी इन दिनों काफी हतप्रभ हैं। उनकी चिंता इस बात को लेकर है कि उनका वरिष्ठ उन पर गलत निगाह डालता है। अब बताइए, इस महिला को हमने हक दिया आगे बढऩे का लेकिन अपनी सोच को और भी संकीर्ण बना लिया। अरे इसे आजादी कैसे कहेंगे, जब हम ऊपर पोस्ट तक लाने के बावजूद महिला पर अपनी आंखे तरेरना बंद ही नहीं करते।

अब वक्त आ गया है कि हम भी महिलाओं को उनका सही हक दिलाएं। अब यहां सही हक की क्या परिभाषा है, यह सबका अपना सोचने का अंदाज हो सकता है। लेकिन सही बात तो यह है कि जब हम अपनी पुरुषवादी संकीर्ण सोच से ऊपर उठकर उन्हें हक दिलाएंगे तो वो महिलाओं का सच्चा हक होगा। इस मौके पर फैज अहमद फैज की कुछ अशआर याद आ रहे हैं....

बोल के लब आजाद हैं तेरे
बोल जबान अब तक तेरी है
तेरा सुतावन जिस्म है तेरा
बोल के जन अब तक तेरी है
बोल के सच जिंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले

सोच बदलनी होगी

रेप, गैंगरेप, कुकर्म और न जाने कितने घृणित करने वाले शब्द इस साल के आखिरी महीने के अखबारों और न्यूज चैनलों में इतिहास के साथ सिमट गए। एक मासूम के साथ हुई इस अनहोनी, अनहोनी नहीं बर्बरता को सुनकर, पढ़कर और इससे उपजे आंदोलन को देखकर हर उदासीन किस्म के इंसान की भी भावनाएं जागृत होने लगी हैं। हर कोई इंसाफ चाहता है, कानून बदलकर इन आरोपियों को फांसी तक पहुंचते देखना चाहता है। हर किसी को अपनी बहू-बेटियों की फिक्र है। सरकार और कानून अपना काम करता रहेगा लेकिन कुछ अहम बातें हमें अभी से अपनी जिंदगी के कानून की किताब में शामिल करनी होंगी।

-हमारे घर में दो बच्चे होते हैं, एक लड़का और एक लड़की। दोनों में से लड़की जब बड़ी होती है तो उसे पर्देदारी सिखाई जाती है, अनजान के सामने बात करने का सलीका सिखाया जाता है, गैर मर्दों से दूर होने का तरीका सिखाया जाता है लेकिन कभी भी कोई बेटे को तहजीब सिखाने की जुर्रत नहीं करता। उसे यह नहीं बताता कि बाहर सड़क से गुजरने वाली लड़की उसकी बहन के समान है। एक लड़की की फिलिंग्स के बारे में नहीं बताया जाता। हमें यह आज से ही शुरू करना होगा। तब शायद हमारी बहू-बेटियां ज्यादा सुरक्षित हो सकेंगी।

-हम लगातार महिलाओं को आजादी की बात करते हैं। उनकी आजादी के इस ढ़ोंग में ही अपनी जीत समझते हैं लेकिन अभी तक हम उन्हें अपनी सोच से आजाद नहीं कर पाए हैं। उनके भोग की वस्तु समझने की सोच, उन पर बुरी नजर डालने की सोच। हमें सबसे पहले महिलाओं को अपनी इस संकीर्ण सोच भी भी आजाद करना होगा।

-कई महिला मित्रों का तर्क है कि दुनिया में महिला होकर पैदा होना ही सबसे बड़ी चुनौती होती है। दिल्ली गैंगरेप के बाद से यह बात और भी पुख्ता हो गई है। कभी आप खुद को एक महिला के तौर पर समझकर देखेंगे तो पता चलेगा कि सड़क पर हर दिन महिला के लिए एक चुनौती होती है। ऐसी चुनौती, जिसका सामना शायद मर्द जात एक पल भी न कर पाए। तो उसे यह चुनौती देने वाले भी तो हम ही हैं।

-अंत में एक बार फिर मेरी सभी युवा भाई-बहनों से अपील है कि गैंगरेप के कानून में बदलाव की मांग को लेकर कानून को अपने हाथ में न लें। सरकारी संपत्ति भी हमारी सबकी संपत्ति है। राष्ट्रपति भवन हमारी शान है। यह मायने नहीं रखता कि उसमें मौजूद शख्स कौन है लेकिन यह मायने तो रखता है कि हम कहां पथराव कर रहे हैं। वैसे भी हिंसा किसी बात का हल नहीं है। कृप्या हिंसा को बढ़ावा न दें।

धन्यवाद

Friday, April 13, 2012

बाबा का क्या कसूर???

निर्मल बाबा, इन दिनों सबके दिलो दिमाग में पर छाए हुए हैं। कल तक उनके प्रशंसक उनका गुणगान करने वाले आज उनके आलोचकों की फेहरिस्त में आ गए हैं। कई जगहों पर निर्मल बाबा के खिलाफ मुकदमेबाजी का दौर भी चल पड़ा है। सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों पर भी बाबा अब गुस्सैल यूजर्स के निशाने पर हैं। कल तक सबकुछ बेहतर लगने वाला आज अचानक कैसे बदल गया। कल तक जनता के दुखों का निवारण करने वाले बाबा अब खुद ही धर्मसंकट में फंस गए हैं। न्यूज चैनलों ने भले ही खबरों को दबाने का प्रयास किया हो लेकिन कहीं न कहीं बाबा की मुखालफत सामने आ ही रही है। बाबा....बाबा...आखिर कौन हैं निर्मल बाबा? कैसे मिला उन्हें यह चमत्कारी गुण और कैसे कर देते हैं वह जनता के दुखों का निवारण। ऐसे तमाम सवालों के बीच अगर निर्मल बाबा का दूसरा पक्ष देखा जाए तो कई नए एंगल नजर आते हैं। आखिर कभी हमने यह सोचने की जरूरत नहीं समझी कि निर्मल बाबा का उदय क्यों हुआ? इतने कम समय में वह हमारे घर-द्वार तक कैसे पहुंचे गए...

दरअसल निर्मल बाबा भी एक आम इंसान की तरह जिंदगी जीते थे। वह भी दुख और कर्ज का सामना कर चुके हैं। उन्हें भी कारोबार में घाटा उठाना पड़ा था लेकिन उन्होंने कभी किसी बाबा की शरण नहीं ली। क्योंकि वह जानते थे कि दुनिया का कोई भी शख्स उनके दुखों का निवारण नहीं कर सकता। अगर वह किसी बाबा के पास चले गए होते तो आज निर्मल बाबा ही न होते। खैर, निर्मल बाबा ने एक बात तो जान ही ली थी कि भारत की जनता कितनी अंध विश्वासी है। अगर माइंड गेम खेलकर उनके दिलो दिमाग पर क्लिक किया जाए तो वह भी कल के मशहूर बाबा बन सकते हैं। एक टीवी कलाकार ने इन दिनों बाबा के खिलाफ कंप्लेन की है, यह बताते हुए कि बाबा ने अपने शुरुआती दौर में हमें प्रतिदिन का मेहनताना देकर सभा में सवाल पूछने के लिए बुक किया था। बाद में बाबा की दुकान चलने लगी तो उन्होंने धोखा देना शुरू कर दिया। आज बाबा कहां हैं और वह टीवी कलाकार वहीं की वहीं है। दरअसल, बाबा की दुकानदारी चलाने वाले भी तो हम खुद ही हैं। आखिर हम क्यों भगवान को छोड़कर इस प्रकार के आम इंसान की भगवानी बातों के भंवर में फंस जाते हैं।

बाबा ने जो किया है, मेरे ख्याल से वह सही है, गलत हैं तो केवल हम। अगर हम बाबा को भगवान को दर्जा ही न देते तो बाबा अपने इस काम में सफल ही न होते। अपने दुखों को बाबा के सामने माइक पर गाकर कहीं, हम उस सृष्टि, अन्नदाता, भगवान और ईश्वर को चैलेंज तो नहीं कर रहे हैं। अगर हां, तो इसका खामियाजा भी हमें निर्मल बाबा जैसे लोगों के रूप में भुगतना तो पड़ेगा ही। मेरा मानना है कि ईश्वर एक है, उसी ने पूरी दुनिया बनाई है, हर धर्म का रास्ता कहीं न कहीं जाकर उसी एक ताकत से मिलता है। फिर हम कब अपने अंदर सुधार लाएंगे। कब ऐसे बाबाओं को पनपने से रोकने का प्रयास करेंगे। केवल कुर्सी पर बैठकर और घर की आलमारी में 10 रुपए के नोटों की गड्डी रखकर ही कोई अमीर नहीं बन जाता। अमीर बनने के लिए तो मेहनत करनी पड़ती है। सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता है, तो भला इस शॉर्टकट की तलाश में कहीं हम भी तो बाबा के रास्ते नहीं चल रहे?

Saturday, March 24, 2012

जाने कहां गए वो दिन...


घर की बालकनी में दो पल सुकून के तलाशते हुए अचानक ही एक अखबारी कागज की घर की बनाई हुई पतंग पर नजर चली गई. पतंग जिस तरह हवा में गोते खा रही थी, उसे देखकर बरबस ही पुराने दिनों की यादें ताजा हो गई. ऐसी यादें जो कभी जब हवा की रफ्तार से उठती हैं तो हवा के हल्केपन के बजाए मन मस्तिष्क पर एक भारी सा बोझ पैदा कर देती हैं. पुराने नजारे को देखते और सोचते हुए ही मैं अपने अतीत में चला गया.

स्कूल से छुट््टी हुई तो गांव में पतंगबाजी ही पढ़ाई से भी महत्वपूर्ण काम माना जाता था. माता और पिता का पढ़कर आगे बढऩे का फरमान तो जैसे इस जोश में तुरंत एक गुब्बारे के पंक्चर की माफिक महसूस होता था. शुरुआती दिनों में जब घर के आंगन में आई हुई एक पतंग में थोड़ी सी सादी, डोर बांधकर उड़ाया तो लगा जैसे पंतग नहीं हवा के साथ-साथ खुद गोते खा रहा हंू. अभी आनंद अपने चरम पर भी नहीं पहुंचा था कि पीछे से मां की कर्कश सी लगने वाली आवाज ने कानों ही नहीं पूरे शरीर में एक विरोध का भाव पैदा कर दिया. आज भी तमाम ऐसे मां बाप हैं जो कि अपने बच्चे को पंतग इसलिए नहीं उड़ाने देते कि कहीं वह बिगड़ न जाए या फिर कहीं उसकी परसेंटेज कम न रह जाए. लेकिन बालमन तो बावरा होता है, भला कहां किसी की सुनता है. सुनता है तो करता तो खुद के ही मन की है. सो, मैं भी आंख चुराकर चल पड़ता पतंग उड़ाने. हवा के रुख के चलते हर दिन कम से कम एक पतंग को कटकर घर पर आ ही जाती थी. सो मेरे पास पतंग का स्टॉक भी खासा था. बस मां, उड़ाने दे, तब ना.

एक दिन हनक चढ़ी और अपने एक मित्र के साथ चल पड़ा मांझा खरीदने. खूब पतंगबाजी की और दिनभर खूब मजा लिया. शाम को पिताजी की डांट ने हालांकि इस आनंद का नशा पलभर में काफूर कर दिया. खैर, पतंग के बहाने ही बात चली तो आपने खुद भी अपने आसपास तमाम पंतगबाजी के नजारे देखे होंगे. कईं पतंगबाजी के माहिर भी देखे होंगे, जो कि अपने एक तिरछे पेंच से झट से सामने वाले की पतंग को धराशाई कर देता था. हमारे मोहल्ले में तो कई ऐसे नामी पतंगबाज थे, जो कि अपने एक ही दांव से सबको चारो खाने चित्त कर देने में माहिर थे.

मुझे इस बात का रंज है कि मैं इस अपने देसी अंदाज को जमकर न जी पाया. दुख इसलिए भी बढ़ जाता है कि मैं मां-बाप की इंजीनियरिंग और मास्टरी की अपेक्षाओं पर पतंगबाजी से दूर रहने के बावजूद खरा नहीं उतरा. चिंता इस बात की है कि मुझे अगर मेरी इच्छाओं के साथ पढऩे का मौका मिलता तो शायद कुछ और ही नजारा होता.
तभी पीछे से मेरी छोटी से नन्हीं तीन माह की बिटिया के रोने की आवाज आई. उसकी आवाज जैसे मुझे इशारा कर रही थी कि पापा, आप तो दोगे ना मुझे वह आजादी. मैं अपने दायरों से वाकिफ हंू, बस आप मुझे हिम्मत देते रहना, मैं आगे बढ़ती जाऊंगी. अब आकाश में न तो वह अखबारी पतंग थी और न वह यादें. शायद किसी मेरे जैसे बच्चे ने अपने मां-बाप से आंख बचाकर यह पतंग खुद ही बनाकर उड़ाने की कोशिश की होगी...