विचार कभी सामान्य नहीं होते

विचार तो मन में आते हैं लेकिन हम उन्हें सही दिशा नहीं दे पाते। अपनी आंखों के सामने हर पल कुछ नया देखते हैं लेकिन उसके बारे में सोच नहीं पाते, अगर सोचते हैं तो शब्दों में ढ़ालना मुश्किल है। शब्दों में ढ़ाल भी दें तो उसे मंच देना और भी मुश्किल है। यहां कुछ ऐसे ही विचार जो जरा हटकर हैं, जो देखने में सामान्य हैं लेकिन उनमें एक गहराई छिपी होती है। ऐसे पल जिन पर कई बार हमारी नजर ही नहीं जाती। अपने दिमाग में हर पल आने वाले ऐसे भिन्न विचारों को लेकर पेश है मेरा और आपका यह ब्लॉग....

आपका आकांक्षी....
आफताब अजमत



Wednesday, September 29, 2010

फैसला आएगा लेकिन…

बाबरी मस्जिद का मामला पिछले कई दिनों से सुर्खियों में है। पढ़ा लिखा हो या बिजनेसमैन, हर कोई ६० साल लंबी इस लड़ाई का फैसला जानने को बेताब है। ऐसे में कई जगहों पर सांप्रदायिकता को लेकर भी पूरी सुरक्षा मुस्तैद कर दी गई है। गांव में रहने वाले अनपढ़ लोगों के लिए भी यह मामला कितना अहमियत रखता है, यह देखने को मिला पिछले दिनों। एक दिन की छुट्‌टी मनाने के लिए मैं गांव गया। गांव में कम ही जाना होता है, इसलिए खानदान से लेकर पड़ोसियों से मिलना एक रिवाज सा बना हुआ है। इसी रिवाज को निभाते हुए मैं पड़ोस में रहने वाले अपने बचपन के साथी के घर पहुंचा। बात २४ सितंबर से पहले की है। मैं जाकर बैठा ही था कि मेरे दोस्त की माता मेरे पास आकर बैठ गई। नौकरी से जुड़ी हर छोटी बात शेयर करने के बाद उनके मुंह से बाबरी मस्जिद का मामला भी निकल ही पड़ा। उन्होंने तपाक से कहा, बेटा, वहां पता नहीं कैसा माहौल है, अच्छा होगा कि इस दिन अपने घर पर ही रहे। वैसे भी अगर फैसला हमारे पक्ष में नहीं आता है तो इसके लिए मरना भी शहादत में शुमार होगा। उनका यह कट्‌टरवादी लहजा मेरे जेहन में एक शूल की तरह चुभता चला गया। ताई जी पुकारता हूं मैं उन्हें। मन में एक अजीब सी बेचैनी पैदा हो गई। मैंने आखिर अपनी अनपढ़ ताईजी से पूछ ही लिया। ‘ताईजी यह बाबरी मस्जिद वाला मामला क्या है?’ मेरा यह एक सवाल ताईजी की जुबान बंद करने के लिए काफी था। ताई जी के मुंह से एक शब्द नहीं निकला। इस बात पर मुझे बड़ा दुख हुआ कि जो लोग यह तक नहीं जानते कि बाबरी मस्जिद वाला मामला है क्या, वह इस कदर कट्‌टर होने पर क्यों तुले हैं। ऐसा कैसे संभव है कि हमें किसी झगड़े की जानकारी न हो और हम उसका हिस्सा बनें। बहरहाल मैंने ताईजी को अपने अंदाज में कंवेंस करते हुए बताया कि यह सब बेकार की बातें हैं। मामला कोर्ट में है, कोर्ट का फैसला ही सर्वोच्च होगा, इसलिए हमें अपने मन की इस गंदगी को दूर करते हुए कोर्ट के फैसले का सम्मान करना चाहिए। हालांकि ताई जी अनपढ़ होने की वजह से बहुत ज्यादा कंवेंस नहीं हो सकी लेकिन ताईजी के इस लहजे ने मेरे अंदर एक सवाल पैदा कर दिया कि आखिर लाखों लोगों को अभी तक भी इस बात की जानकारी क्यों नहीं है कि यह फैसला किस बात का है? आज मुझे बड़ी शिद्‌दत से वो पंक्तियां याद आ रही हैं, ‘हम आपस में लड़ बैठे तो देश को कौन संभालेगा….’

Saturday, September 25, 2010

ये मीडिया किस देश की है???


लंबी कोशिशों के बाद हमें राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी मिली। मेजबानी के टाइम पर हर कोई भारत की इस जीत को लेकर बेकरार दिखाई दिया। दे भी क्यों न, आखिर हमने इतने देशों को पीछे छोड़कर कॉमनवेल्थ की मेजबानी अपनी झोली में जो डाली थी। अर्सा बीत गया, मीडिया को भी याद नहीं रहा। इस बीच जैसे ही इस महाआयोजन का समय नजदीक आया तो मीडिया भी इसमें खबरें तलाशने लगी। थोड़े दिनों के बाद हमारे काबिल पत्रकारों ने कड़वी सच्चाई भी सामने लानी शुरू कर दी। वक्त बीतता गया, हर दिन एक नई चौंकाने वाली खबर सामने आती गई। सरकार और उसके नुमाइंदे भी मीडिया की इस कसरत पर हिल गए। यहां तक की बात तो सही थी, लेकिन अब मीडिया इन मामलों और अपनी मसालेदार खबर तलाशने के चक्कर में यहां तक भूल गई कि यह हमारे देश की इज्जत है। इस आयोजन के न होने की परिस्थिति में उसी देश की किरकिरी होगी, जहां यह मीडिया अपने संस्थान चला रही है। मैं हालांकि मीडियाकर्मी होने के नाते अपने काबिल साथियों की बुराई बिल्कुल नहीं कर रहा हूं, लेकिन मेरा मानना है कि मीडिया को अब जब आयोजन अपने चरम पर है, नेगेटिविटी पैदा करने के बजाए कुछ पॉजिटीव बातें भी सामने लानी चाहिएं। इस आयोजन की महत्ता कितनी है, इसकी सबसे बेहतर नजीर है हाल में खेल गांव का दौरा करने आए फेनेल ने दौरे के बाद की प्रतिक्रिया पूरी तरह से पॉजिटीव दी। ऐसा नहीं है कि उन्होंने जमीनी सच्चाई नहीं देखी होगी, बल्कि इसके पीछे का सच यह है कि इस आयोजन को सफल बनाने में उनका एक बयान बहुत महत्ता रखता है। इसी दूरगामी सोच को मानते हुए उन्होंने आल इज वेल बोल डाला। अब अगर दूसरे देश से आए परदेसी इस आयोजन की महत्ता को समझ रहे हैं तो हमारी मीडिया इस कदर खबरची बनने पर क्यों लगी है। ठीक है, मैं एक पत्रकार हूं, या फिर लोगों तक सरकारी नाकामी का सच लाना मेरे लिए एक मुहिम है लेकिन यह भी तो सोचना होगा कि हम इसी देश के बाशिंदे हैं। हमारे देश की शान पर उंगली उठना हमारी शान पर उंगली उठने के बराबर है। अगर फेनेल एक बयान नकारात्मक दे देते तो राष्ट्रमंडल खेलों से मुंह मोडने को तैयार बैठे कई देश तुरंत भागीदारी करने से इंकार कर देते, लेकिन फेनेल की इस दूरदर्शी सोच को अब हमें मानना ही होगा। हमें समझना होगा कि अब हमें किसी भी तरह से इस आयोजन को सफल बनाने की कोशिश करनी है। मेरी सभी मीडियाकर्मियों से अपील है कि वह शेरा का सीना गर्व से चौड़ा कर दें, ताकि कल अतिथि देवो भवः के देश में आने वाले परदेसी यहां की तारीफ करके वापस जाएं।

जय हिंद...

Thursday, September 16, 2010

जब मुझे ही देनी पड़ी घूस...


ईद की छुटि्‌टयां मनाने के लिए घर पहुंचा। ईद खुशी के साथ मनाई लेकिन पास की कालोनी में भारी बरसात के पानी के विकराल रूप ने लोगों का जीना मुहाल कर दिया। पता चला कि कालोनी में ड्रेनेज सिस्टम ठप हो चुका है। कई दिन तक पानी न निकलने की वजह से लोगों में आक्रोश फैल गया। लोगों ने सड़क जाम की तो नगर निगम को होश आया। टीम ने नाले की सफाई के लिए तीन जेसीबी मौके पर लगा दी। इस बीच मेरे घर के सामने से यह नाला गुजरने की वजह से पिताजी को रास्ता बंद होने का डर सताने लगा। टीम पूरे नाले की दोबारा खुदाई करवाते हुए जब हमारे घर के सामने पहुंची तो हमारी धड़कने बढ़ गई। इस बीच एक दरोगा जी हमारे पास आकर बैठ गए। इधर टीम की जेसीबी काम करने में लगी हुई थी तो उधर दरोगा जी मीठीमीठी बातें हमें एक दिलासा दे रहे थे। इस बीच मेरा भाई लगातार दरोगा जी के पास लगकर कुछ देने की कोशिश कर रहा था। इधर मैं अपने भाई की इस हरकत को नोटिस करने की कोशिश में लगा था तो दरोगा जी के साथ का पुलिसकर्मी अकड़ दिखाने लगा। पिताजी ने तुरंत मुझे मामले में आगे ला दिया। मैंने पूछा तो पुलिसकर्मी ने बताया कि नाले की खुदाई में घर से निकलने का रास्ता बचाने के लिए आपके पिताजी ने एक हजार रुपए का सौदा किया था, लेकिन अब पैसे देने के टाइम पर वह महज पांच सौ रुपए ही दे रहे हैं। अपनी आंखों के सामने यह घूसखोरी देखकर मेरे अंदर का पत्रकारी कीड़ा जाग गया। मामला बिगड़ता देख मीठीमीठी बातें कर रहे दरोगा जी भी वहां से कड़वा मूड लेकर चलते बने। मैं तुरंत दरोगा जी के पास पहुंचा तो उनका लहजा पैसे की वजह से बदल चुका था। दरोगा जी ने तुनकते हुए जवाब दिया कि आपके पिताजी ने रास्ता छुड़वाने के लिए पैसे की बात की थी लेकिन अब पैसे देने में आनाकानी कर रहे हैं। मेरे पूछे बिना पिताजी की यह हरकत पहले पहल तो मुझे नागवार गुजरी लेकिन इस बीच पैसे कम की बात पर अड़ने वाले पुलिसकर्मी बचाया हुआ रास्ता तोड़ने का दबाव बनाने लगे। अब रास्ता बचाने के लिए पैसे देने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था। मजबूरी में मुझे अपने हाथों से उन घूसखोर पुलिसकर्मियों को घूस के पैसे देने पड़े। लेकिन इस घूसखोरी का जरिया मैं और मेरा परिवार बना, यह कम से कम मेरे लिए तो बिल्कुल विचित्र और न लगने वाली बात थी। पिताजी ने घर से निकलने का रास्ता बचाने के लिए एक दरोगा को पैसे देने का कमिटमेंट कर लिया लेकिन इस कमिटमेंट ने मेरे लिए हजारों सवाल पैदा कर दिए। सबसे पहला सवाल तो यही था कि पुलिस की दागदार छवि आखिर कब धुलेगी? दूसरा सवाल ये था कि इस घूसखोरी के लिए जिम्मेदार कौन हैं? इन सवालों के जवाब भी मेरे और मेरे परिवार के इर्द गिर्द ही मिल सकते थे। अगर पिताजी अपना रास्ता बचाने के लिए पुलिसकर्मियों के पास बेबसी भरी गुहार न लगाते तो क्या यह दिन आता? काम नगर निगम की टीम कर रही है लेकिन व्यवस्था बनाने वाली पुलिस अपनी व्यवस्थाएं तलाश रही है तो यह सरकारी व्यवस्थाओं की नाकामी बताने के लिए काफी है। जब मौके पर नगर निगम का इंजीनियर मौजूद था तो ऐसी परिस्थिति क्यों आई कि पुलिस वाले पैसा खाने लगे? सवाल बहुत हैं, इनके जवाब भी हम खुद हैं लेकिन इस घूसखोरी का शिकार होना मेरे लिए ताउम्र न भूलने वाला दंश बन गया।