विचार कभी सामान्य नहीं होते

विचार तो मन में आते हैं लेकिन हम उन्हें सही दिशा नहीं दे पाते। अपनी आंखों के सामने हर पल कुछ नया देखते हैं लेकिन उसके बारे में सोच नहीं पाते, अगर सोचते हैं तो शब्दों में ढ़ालना मुश्किल है। शब्दों में ढ़ाल भी दें तो उसे मंच देना और भी मुश्किल है। यहां कुछ ऐसे ही विचार जो जरा हटकर हैं, जो देखने में सामान्य हैं लेकिन उनमें एक गहराई छिपी होती है। ऐसे पल जिन पर कई बार हमारी नजर ही नहीं जाती। अपने दिमाग में हर पल आने वाले ऐसे भिन्न विचारों को लेकर पेश है मेरा और आपका यह ब्लॉग....

आपका आकांक्षी....
आफताब अजमत



Saturday, October 30, 2010

इस राह में कोई रोड़ा नहीं बन सकता

पिछले दिनों की बात है। मैं ऑफिस से काम निपटाने के बाद घर पहुंचा। खाना खाकर अभी आराम की मुद्रा में आया ही था कि फोन की घंटी बज उठी। इस मुद्रा में जाने के समय पर अगर फोन बाधा उत्पन्न करे तो बहुत किलस होती है। खैर मैंने फोन उठाया तो रोने की आवाजें आने लगी। फोन पर आने वाली आवाज मर्दाना थी लेकिन उस आवाज में एक मजबूरी झलक रही थी, कुछ टूटने का अहसास हो रहा था। मैंने हैलो किया तो वह विनय का फोन था। विनय, जो कि एक बेहद चुस्त और जोश से भरा हुआ दिखने वाला युवक। काम में माहिर, किसी कंपनी में बतौर एक्जीक्यूटिव तैनात। सुबह जोश के साथ तो शाम आत्मसंतुष्टि के साथ होती थी। आज ऐसा क्या हुआ कि विनय माजूरी की हालत में पहुंच गया। उसकी गिरती आवाज को अपनी आवाज से सहारा देते हुए मैंने विनय से रोने की वजह पूछी तो वह फफकफफक कर रो पड़ा। विनय ने बताया कि वह एक दूसरी कम्यूनिटी की लड़की से प्रेम करने लगा। प्रेम भी इस कदर परवान चढ़ गया कि वह उसके लिए सबकुछ छोड़ने को तैयार हो गया। ऐसे प्रेमियों की राह में सबसे बड़ा रोड़ा बनते हैं मांबाप। यहां भी ऐसा ही हुआ। विनय के मांबाप ने उसे रोकने की लाख कोशिश की लेकिन समाज की नजरों में कांटों से भरे इस रास्ते पर चलने में उसे जो मजा आ रहा था, उसे एक प्रेमी ही महसूस कर सकता है। मातापिता के बढ़ते विरोध के साथ ही विनय के प्रेम को एक अलग मजबूती मिलती जा रही थी। जब विनय बगावत पर उतर आया तो उसके परिजनों ने एक ऐसा रास्ता अख्तियार किया, जो आज के परिपेक्ष्य में थोड़ा आलोचना भरा हो सकता है। विनय के पिता ने उसे कमरे में बंद कर दिया, विनय ने रोते हुए बताया कि वह पिछले कई दिनों से इस कमरे में बंद होकर रह गया है। मैंने विनय के आंसुओं को रोकने की कोशिश की तो उसने अपनी प्रार्थना रोते हुए मेरे सामने रख दी। विनय चाहता था कि मैं मीडियाकर्मी होने के नाते उसका कोर्ट मैरिज करा दूं और उसे यहां से चलता कर दूं। विनय की नजरों में आसान सा दिखने वाला यह काम इतना आसान नहीं था। पहली बात तो यह कि कमरे से बाहर निकलना मुश्किल, बाहर निकल भी गया तो दिल्ली भेजी जा चुकी प्रेमिका से मिलना मुश्किल, मिल भी गया तो बैंक अकाउंट में एक भी पैसा नहीं। ऐसे में विनय का यह प्यार और भी मुश्किल था। मैंने विनय को थोड़ा सब्र रखने की सलाह दी तो उसे मेरी बातों में नाउम्मीदी नजर आई। मैंने लाख समझाने की कोशिश की लेकिन वह नहीं माना। दो दिन बाद उसके निवास वाले क्षेत्र के थाने में एक एफआईआर दर्ज हुई, जिसमें लिखा था कि उनका बेटा गायब हो गया है। कल तक उसे कमरे में बंद करने वाले मांबाप को आज अपने बेटे के खोने पर बेहद अफसोस हो रहा था। विनय जा चुका था और अपने पीछे छोड़ गया था कुछ दर्द कुछ रंज।

Monday, October 25, 2010

हो सकता है आपको यह अच्छा न लगे

आज मैं जो लिखने जा रहा हूं, हो सकता है कुछ लोगों को पसंद न आए। मैं आजाद देश का आजाद प्राणी हूं तो मुझे भी अपनी बात कहने का हक है। बाबरी मस्जिद मामले में याचिका दायर करने वाले हाशिम अंसारी की भावनाओं की कद्र करते हुए मैं जो लिखने जा रहा हूं, वह कड़वा सच है।

बाबरी मस्जिद विवाद। खौफनाक इंसानी लड़ाई के बाद लंबे सालों तक कानूनी लड़ाई। नतीजा, जमीन का बंटवारा। यह है बाबरी मस्जिद मामले की सच्चाई। मामले में भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग की रिपोर्ट को आधार बनाया गया। सबने इसकी सराहना की लेकिन कई लोगों ने इस पर अपना विरोध भी जताया। खैर, मैं इस रिपोर्ट से व्यक्तिगत रूप से सहमत हूं। जाहिर तौर पर आपके दिमाग में सवाल होगा क्यों, तो आइए मैं आपको बताता हूं।

भारत, वह देश जहां सबसे पहले हिंदू संस्कृति की उत्पत्ति मानी जाती है। वह संस्कृति, जो पूरी दुनिया में सबसे महान संस्कृति इसलिए है क्योंकि इसने हर बार दूसरे धर्मों और संस्कृतियों को अपने अंदर समाहित किया। चूंकि हिंदू संस्कृति की उत्पत्ति यहीं से हुई है तो जाहिरतौर पर यहां की जमीन और जंगल भी इस संस्कृति की ही विरासत है। दूसरी संस्कृतियां और धर्म यहां चलकर आए हैं और हिंदू संस्कृति ने उन्हें पनाह, जंगल और जमीन दी। ऐसे में पहला हक तो हिंदू संस्कृति का ही बनता है। अब मुगलकाल आया तो इसी जमीन पर मस्जिद बना दी गई। इंसान की इंसानियत खत्म हुई तो वह मस्जिद और मंदिर में फेर करने लगे। बात यहां तक पहुंच गई कि मस्जिद को ढ़हा दिया गया। नतीजतन कई सालों तक इंसानियत के बीच खाई बनी रही। अब फैसला आया तो इस पर राजनीति फिर से शुरू हो गई। लेकिन लंबे सालों की कानूनी लड़ाई ने मुस्लिम पक्षकार हाशिम अंसारी को एक सीख दे दी है कि हम सब भारतवासी हैं तो हम क्यों मंदिर मस्जिद की झगड़ों में अपना वक्त, जोश और जवानी ज़ाया कर रहे हैं। मामले की सुनवाई कर रहे जजों की पीठ में शामिल जस्टिस डीवी शर्मा की रिपोर्ट की बात करें तो मस्जिद वाली जगह के पास कई छोटे मंदिर भी थे, जिनमें हिंदू नियमित तौर पर पूजापाठ कर रहे थे। मस्जिद ढ़हाने गए लोगों ने इन मंदिरों को भी नहीं बख्शा। अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि यह मंदिर और मस्जिद विवाद महज हम इंसानों के बीच खाई पैदा कर राजनीति का एक फंडा है। खैर, मेरा तो यह मानना है कि जब मुस्लिम धर्म की उत्पत्ति भारत में हुई ही नहीं तो यह जमीन किसकी है, फैसला आपके हाथ…

Saturday, October 23, 2010

यहां एलएलबी पास आइसक्रीम बेचता है

मेरे बचपन के दोस्त संजय के चाचा अशोक कुमार, पढ़ाई एलएलबी, पेशा आइसक्रीम विक्रेता. यह प्रोफाइल है उस शख्स का जो कि एलएलबी करने के बावजूद आज तक आइसक्रीम ही बेचता है। बचपन से ही हम अशोक चाचा की आइसक्रीम खाते हुए बड़े हुए हैं तो आज मैं जो लिखने जा रहा हूं, वह उनके सम्मान में लिख रहा हूं। मैं अपने दोस्त के इस चाचा की पूरी कदर करता हूं। चाचा मुझे भी अपना दूसरा संजय ही मानते हैं। इस बार गांव गया तो उनसे फुर्सत के लम्हों में बात करने का मौका मिल ही गया। मैंने चाचा का अतीत खंगालना शुरू कर दिया। चाचा के चेहरे पर मायूसी छा गई और मन में एक कसक साफ दिखाई देने लगी। चाचा ने बताया कि वह सहारनपुर के जैन कॉलेज से ग्रेजुएशन कर रहे थे। इस दौरान रास्ते में कोर्ट पड़ता था तो एकदो वकीलों के पास भी उनका उठनाबैठना हो गया था। फिर न जाने कब चाचा को भी काला कोट पहनकर कानून का पक्षकार बनने की सूझ गई। ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद चाचा ने झट से एलएलबी में एडमिशन ले लिया। उन दिनों एलएलबी करना हालांकि बहुत बड़ी बात मानी जाती थी लेकिन यह एलएलबी उनके लिए आज तक बेरोजगारी की वजह बनी है। एलएलबी करने के बाद चाचा ने कोर्ट में ट्रेनिंग शुरू की, रजिस्ट्रेशन कराया लेकिन संघर्ष इतना था कि वह वहां टिक नहीं पाए। टिक भी जाते तो पता चला कि कोर्स की पढ़ाई और कोर्ट में कमाई में जमीनआसमान का अंतर होता है। अब चाचा ने तो सिर्फ किताबों में ही कानून पढ़ा था, प्रयोगात्मक तौर पर तो वह इसकी एबीसीडी भी नहीं जानते थे। काफी कोशिश की, कई वकीलों के चैंबर में हर रोज जूते घिसे लेकिन नतीजा आज भी बेरोजगारी। दरअसल चाचा जैसे ही हजारोंलाखों लोग इस देश में आज भी ग्रेजुएशन और पोस्टग्रेजुएशन कोर्स करने के बावजूद बेरोजगार हैं। इस सवाल को गंभीरता पूर्वक सोचा जाए तो एक सवाल खुद ही आ खड़ा होता है कि आखिर इतना पढऩे के बावजूद हम अपने पैरों पर खड़ा क्यों नहीं हो पाते? जवाब मिलता है, तो आंखे खुल जाती हैं। हमारा एजूकेशन सिस्टम खुद को बनाया हुआ नहीं बल्कि अंग्रेजों की गुलामी वाला है। उस गुलामी के दौर में अगर हम अच्छा पढ़लिख लेते थे तो भी अंग्रेज अपने गुलाम बनाकर ही नौकरी देते थे। वहां प्रेक्टिकल पर इसलिए ज्यादा जोर नहीं दिया जाता था, क्योंकि यह किसी के भी अपने पैरों पर खड़ा होने की पहली सीढ़ी है। मुझे बड़ा आश्चर्य होता है, यह देखकर कि हम आजाद होने का ढोंग रचते हैं लेकिन आज तक अपनी आजादी वाला एजूकेशन सिस्टम तैयार नहीं कर पाए। जापान जैसे छोटे देश अपनी राष्ट्रीय भाषा के दम पर पूरी दुनिया में अपना लोहा मनवा रहे हैं लेकिन हम हैं कि अंग्रेजी से अपना दामन छुड़ा ही नहीं पा रहे हैं। हमारी मातृभाषा, राष्ट्रभाषा हिंदी आज भी हमसे दूर ही है। हालांकि एजूकेशन सिस्टम में लगातार परिवर्तन करने की बड़ीबड़ी बातें हो रही हैं लेकिन आज भी हम प्रेक्टिकल रीडिंग से कोसों दूर हैं। हमें यह सोचना होगा कि अमेरिका जैसे विकसित देशों में युवा, ग्रेजुएशन में एडमिशन के साथ ही किसी न किसी रोजगार से जुड़ जाता है लेकिन हमारा ग्रेजुएशन करने वाला स्टूडेंट आज भी अपने कॅरियर को लेकर ऊहापोह की स्थिति में दिखाई देता है। विदेश में पोस्ट ग्रेजुएशन करने वाला छात्र बहुत अच्छी तरह से अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है लेकिन हमारा पोस्ट ग्रेजुएट आज भी सरकारी नौकरी की राह ताकता है। हमारे अशोक अंकल आज भी आइसक्रीम बेचकर अपनी आजीविका चला रहे हैं। देश में और भी न जाने कितने लाखों, करोड़ों सपने इस एजूकेशन सिस्टम की वजह से गुमनामी के अंधेरों में कैद होकर रह गए है।

Thursday, October 21, 2010

आम आदमी हो तो मरो

बात जरा पुरानी है लेकिन मेरे जेहन की यादों में आज भी ताजा है। हो भी क्यों न, आखिर मैंने अपनी आंखों के सामने वीआईपी का रौब और आम आदमी पर इसकी मार जो देखी थी। तब मैं ग्रेजुएशन कर रहा था। एक दिन सड़क से गुजर रहा था कि पीछे से वीआईपी काफिले का हूटर सुनाई दिया। मैं यह तो नहीं जानता कि इस फ्लीट में कौन जनता के वोटों से जीता वीआईपी नेता था लेकिन जो मैंने देखा, उससे मैं बहुत आहत हुआ। दरअसल इस काफिले की आवाज धीरेधीरे साइकिल चलाने वाले उस मजबूर बूढ़े कानों को सुनाई नहीं दी। बस उसकी खता ये थी कि उसके कान इसे महसूस नहीं कर पाए। नतीजा काफिला उसकी साइकिल के पास पहुंचा। काफिले में सबसे आगे चल रही पुलिस की गाड़ी में बैठे पुलिस भी वीआईपी की खातिरदारी में आम आदमी का दर्द भूल गए। कार के साइकिल के पास पहुंचते ही कार में से एक राइफल बाहर निकली। मैं पूरा नजारा अपनी आंखों से देख रहा था। राइफल निकली और अगले ही पल वापस अंदर चली गई लेकिन यह राइफल उस बूढ़े और उसकी साइकिल को सड़क से पांच फिट दूर गिरा गई। इस वीआईपी रौब ने मुझे अंदर तक हिला दिया। काश मेरे वश में होता तो मैं उस वीआईपी को उससे माफी मांगने के लिए जरूर रोक लेता। काफिला चला गया लेकिन माजूर को दे गया वो जख्म जो शायद वह कभी नहीं भूल सकेगा। खैर मैंने उसे सहारा देकर उठाया तो वह चला गया। मैं अक्सर देखा करता हूं कि कोई भी वीआईपी काफिला जाता है तो पूरा सिस्टम रोक दिया जाता है। आखिर जनता के वोट से वीआईपी बनने वाले यह लोग कब इस जनता का दर्द समझेंगे। अरे इनसे अच्छे तो वो विदेशी हैं, जहां वीआईपी के जाने की कानोंकान खबर भी नहीं होती। अब आपके दिमाग में एक सवाल आना जायज है, आखिर वीआईपी है तो सुरक्षा की जिम्मेदारी भी बनती है। अरे जब आप ट्रेफिक रोक देंगे तो हर किसी को पता चल जाएगा कि यहां से कौन गुजरने वाला है। अगर सबकुछ सामान्य तरीके से चलाएंगे तो मेरे ख्याल से कम दिक्कतें होंगी। यह बात मुझे आज इसलिए ज्यादा याद आ रही है, क्योंकि आज मेरी बाइक एक घंटे तक वीआईपी के जाम में फंसी रही। खैर हमारी तो कट जाएगी, लेकिन चिंता इस बात की है कि हमारा सिस्टम कैसे सुधरेगा?

Tuesday, October 19, 2010

शायद यही प्यार है?

मैं ऑफिस का काम निपटाकर घर निकलने की तैयारी में ही था कि शर्मा जी का फोन आ गया। शर्मा जी फोन पर काफी गुस्से और उत्साह में मालूम हो रहे थे। मैंने कूल माइंड से शर्मा जी का फोन रिसीव किया तो उधर से काफी जल्दबाजी भरी हैलो हुई। इसके बाद शर्मा जी ने मुझे निकट ही एक जगह पर आमंत्रित किया। चूंकि घर जाने की जल्दी थी तो मैंने शर्मा जी से वजह पूछी। इसके बाद शर्मा जी ने निहायत ही गुस्से में एक लड़की की असफल प्रेम कहानी मुझे बता डाली। मामले की संगीनता को देखते हुए मैंने शर्मा जी को ऑफिस ही बुला लिया। वह अपने एक साथी के साथ ऑफिस में आए। उनके चेहरे पर गुस्से के भाव साफ झलक रहे थे। उनके साथ एक निहायत ही कमजोर सी लगने वाली वो लड़की और उसका भाई भी था। शर्मा जी ने बताया कि यही वो लड़की है, जिसका आशिक उसे छोड़कर चला गया। अब वह लगातार उसे और उसकी फैमिली को टॉर्चर कर रहा है। शर्मा जी को गुस्सा इसलिए था कि उनके पड़ोस में रहने वाली बिन बाप की इस बच्ची की वजह से वह सिरफिरा आशिक सबको गालीगलौच करके गया था। खैर, मैंने उस लड़की से बात करनी शुरू की तो उसने बताया कि उसका अफेयर चार साल से चल रहा है, लेकिन उसके प्रेमी ने अब शादी की बात से मुंह फेरना शुरू कर दिया है। मैं अगर उसे प्रेशर करती हूं तो वह मुझे मारता है। सिरफिरे प्रेमी के हौंसले इस कदर बुलंद हो गए हैं कि सोमवार को वह पूरे परिवार को मारपीट और गाली गलौच कर गया। शर्मा जी मुझ पर एंटी खबर छापने का दबाव बनाने की कोशिश कर रहे थे। फिर भी मैंने लड़की से अलग में बात करना मुनासिब समझा। बात की तो रोते हुए उसने अपने प्रेमी का नाम न छापने की गुहार लगाई। जब उसे बताया गया कि पुलिस केस होने पर उसके प्रेमी को जेल भी जाना पड़ सकता है तो उसने मामला न छापने की जिद पकड़ ली। अब हमें कोई जिद तो थी नहीं, जो हम छापते। लेकिन इस प्रेमिका का अपने प्रेमी के प्रति यह प्यार और समर्पण वास्तव में चौंकाने वाला था। चार साल पुराना प्रेमी पूरे सपने बुनने के बाद जब शादी से साफ इंकार कर देता है तो एक समर्पित प्रेमिका के लिए इससे ज्यादा दुख की बात कोई हो ही नहीं सकती। लेकिन यहां यह प्रेमिका इतना सब होने के बावजूद अपने प्रेमी को बचाने पर जुटी थी। मैं भी नहीं समझ पा रहा हूं कि यह सही था या गलत, लेकिन इससे एक बात तो साफ हो गई कि शायद इसी का नाम प्यार है। सिरफिरे आशिक की यह प्रेमिका और उसका यह प्यार मुझे ताउम्र याद रहेगी।

Monday, October 18, 2010

वाह री टीआरपी, समाज का बेड़ा गर्क करके छोड़ेगी

टीआरपी, वह शब्द जो एक टीवी चैनल के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। हो भी क्यों न आखिर इनकी रोजी रोटी जो इसकी के जरिए आती है। यह शब्द आजकल कुछ ज्यादा ही महत्वपूर्ण हो गया है। टीआरपी के फेर में हम और हमारे समाज को क्या दिशा मिल रही है, इससे किसी को कोई मतलब नहीं है। ताजा उदाहरण है, एक टीवी चैनल पर शुरू हुआ एक रियलिटी शो। इसमें राखी सावंत इंसाफ कर रही है। हम राखी सावंत की बुराई नहीं कर रहे हैं, न ही हम अपनी रोजी रोटी का जरिया बनाने वाले चैनल की बुराई कर रहे हैं। हम बुराई कर रहे हैं उन लोगों की, जिनके घर के झगड़े अब सड़कों पर नहीं बल्कि दूसरों के घरों तक पहुंच रहे हैं। चैनल पर शो की शुरुआत जिस मामले से की गई, वह बेहद चिंताजनक है। इसमें दिखाया गया है कि खुद को भाईबहन स्वीकार करने वाले महिला और पुरुष एक स्टिंग ऑपरेशन में संगीन अवस्था में दिखाई दे रहे हैं। यानी अब बेहूदगी का यह नंगा नाच बड़ी सेलिब्रिटीज से लेकर आम आदमी तक पहुंच चुका है। हर समाज की रीढ़ की हड्‌ड़ी मानी जाने वाली इस आम जनता को अब अपने परिवार, समाज और रिश्तों की कोई फिकर नहीं रह गई है। नतीजा हम इनके अवैध रिश्तों को टीवी के माध्यम से अपने घरों में खुद तो देख ही रहें हैं साथ ही अपनी नई पीढ़ी को भी दिखा रहे हैं। बुजुर्ग कहते थे कि घर में पतिपत्नी के बीच सौ तरह की लड़ाईयां होती आई हैं, इन्हें किसी बाहरी व्यक्ति से शेयर नहीं करना चाहिए, लेकिन यहां तो पति पत्नी तो दूर लोग अब अवैध रिश्तों पर दुनिया के सामने इंसाफ मांग रहे हैं। हालांकि हमारे समाज में आज भी एक तबका इसका उद्धार करने वाला बचा हुआ है लेकिन जो नई दिशा हम पकड़ रहे हैं, वहां का भविष्य अंधकार से भरा हुआ है। चंचल मन वाला हमारा बच्चा अगर टीवी पर यह अवैध रिश्ते या फैमिली ड्रामा देख रहा है तो उसके मानस पटल पर चल रही उथल पुथल के लिए कौन जिम्मेदार होगा? कल जब वह इसी दिशा में जाएगा तो क्या होगा? आखिर हम इतने बेशर्म कब हो गए कि हमें अपने बच्चों और अपने समाज की बिल्कुल भी लिहाज नहीं रहा? यह ऐसे सवाल हैं, जिनके बारे में हमें और आपको सोचना नहीं बल्कि कुछ करना ही होगा। तभी जाकर हम बच सकते हैं, हमारे बच्चे बच सकते हैं, हमारा समाज बच सकता है।

Sunday, October 17, 2010

महिला है, बचके रहना रे बाबा


हम आज भी महिलाओं को दयनीय दृष्टि से देखते हैं। मैं खुद शोषित महिलाओं के पक्ष में रहता हूं। समाज की दयादृष्टि का पात्र यह महिलाएं दरअसल कानूनी रूप से लेकर हर तरह से मजबूत हैं। आपका एक कदम आपको कहां ले जाएगा कहना मुश्किल है लेकिन सुपर पावर महिला आपको कब और कहां, कैसे हालात में पहुंचा दे, यह कभी किसी ने नहीं सोचा है। हमारे संविधान ने महिलाओं को वास्तव में एक अलग पावर दी है। आज मैं जो वाकया लिख रहा हूं, अब से महज कुछ घंटे पहले ही मैं इसका शिकार हुआ हूं। दरअसल रविवार को शहर के एक स्कूल में पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का कार्यक्रम था। मेरी ड्‌यूटी डॉ. कलाम की कवरेज के लिए लगाई गई थी। कार्यक्रम में मसक्कली गीत से मशहूर हुए गायक मोहित चौहान भी थे। यंग जेनरेशन को रिप्रजेंट करने वाले हमारे न्यूज पेपर के लिए यह जरूरी था कि हम इस युवा गायक के दिल की बातें जाने। सो मैं पहुंच गया इस हस्ती के पास। मौके पर कई छात्राएं भी ऑटोग्राफ लेने के लिए आ खड़े हुए। मेरे मीडियाकर्मी साथी भी मौके पर मौजूद थे। इसी बीच एक छोटी से बच्ची मेरे पीछे खड़ी थी। उनके ठीक पीछे एक सभ्य सी दिखने वाली महिला भी खड़ी थी जो कि मशहूर गायक की झलक न मिलने की वजह से फ्रस्टेट नजर आ रही थी। इस बीच जब उस महिला को मैं राह की बाधा नजर आया तो उन्होंने जो तरीका मुझे हटाने का निकाला, मैं उससे आहत हूं। उन्होंने मुझ पर सीधे उस बच्ची को छेड़ने का आरोप लगा दिया। मैं बेचारा मर्द अब उस महिला को क्या जवाब दूं। हिंसात्मक रुख अपनाऊं तो मुश्किल और डांट दूं तो मुश्किल। बच्ची मुझे अंकल कहकर पुकार रही थी, लेकिन इस महिला ने एक पल में मेरे चरित्र पर सवाल खड़ा कर दिया। हालांकि मैंने अपनी भड़ास निकालने के लिए महिला को मुंहतोड़ जवाब दिया लेकिन मेरा जमीर अभी भी इसे पर्याप्त नहीं मान रहा है। मैं अगर महिला के साथ ज्यादा सख्ताई करता तो वह निश्चित तौर पर मेरे साथ कुछ और बुरा कर सकती थी। मैं बेचारा वहां किसेकिसे समझाता लेकिन उस महिला का यह रवैया मुझे ताउम्र पसंद रहेगी।

Thursday, October 14, 2010

बेटी आज भी उदासी लेकर आती है


नवरात्र चल रहे हैं, हर दिन अलगअलग मां की पूजा की जाती है। ऐसे में महिलाओं की वर्तमान दशा पर कुछ सोचने की बात आई तो बरबस ही मुझे पिछले साल का एक वाकया याद आ गया। मेरे पड़ोस में नेगी जी का परिवार रहता था। इस परिवार में चार लड़के थे। बड़े बेटे की शादी के बाद बहू पेट से थी। डिलीवरी के दिन नजदीक आने के साथ ही बहू की आवभगत भी बढ़ गई थी। सास तो जैसे बहू के पेट में अपना वंशज ही देखती थी। भाग्य में जो लिखा होता है, उसे कोई नहीं मिटा सकता। मध्यम श्रेणी के इस परिवार में भी भाग्य ने कुछ और ही लिखा था। डिलीवरी के दिन बहू को बड़े सम्मान भाव से अस्पताल में एडमिट कर दिया गया। इस बीच हम सबकी नजरें भी इस परिवार की उम्मीदों पर लगी हुई थी। डिलीवरी के कई दिनों बाद तक परिवार में एक अजब सी खामोशी छा गई। पूछने पर कोई बात करने को तैयार न था। मैं छुट्‌टी के दिन पड़ोसी होने के नाते हालचाल लेने पहुंच ही गया। घर में एक चारपाई पर मासूम सी बच्ची को उसकी दादी मां उदास भाव से खिला रही थी। बच्ची की मासूमियत इस कदर थी कि यह उदासी न चाहते हुए भी साफ झलक रही थी। मैंने बच्ची को देखा, शगुन के तौर पर कुछ पैसा दिया और सासू मां से मिठाई खिलाने की बात कही। उदास सासू मां के जख्मों पर जैसे मेरी बात ने नमक का काम किया। उन्होंने तपाक से जवाब दिया, ये हुई है, मेरी तो सारी उम्मीदें ही बेकार गई। मैं तो सोच रही थी कि खानदान का चिराग आएगा लेकिन बहू ने यह खर्चा पैदा कर दिया। खर्चा नहीं कई लाख की डिग्री है यह। सासू के महिला होने के बावजूद ऐसे कटु वचन मुझे अंदर तक हिला गए। आखिर एक महिला और मां कैसे महिला विरोधी हो सकती है। लेकिन यह एक सच्चाई थी उस जमाने की जहां हम लगातार मॉर्डन होने के दावे करते हैं, बेटियों को आगे बढ़ाने की बात करते हैं, लेकिन नतीजा आज भी ढ़ाक के तीन पात जैसा ही है। आज भी बेटे के होने पर ही ढ़ोल नगाड़े और मिठाई की रस्म निभाई जाती है। अरे, लानत हैं उन मांबाप पर जो आज भी बेटों को बेटी से ऊपर मानते हैं। ऐसे मांबाप को तो आज राष्ट्रमंडल खेलों में महिलाओं का शानदार प्रदर्शन देखकर डूब जाना चाहिए। देश को गोल्ड मेडल से लेकर दूसरे नंबर पर रखने वाली बेशक महिलाएं ही हैं। महिलाएं हालांकि आज भी बेचारी हैं लेकिन जब उन्हें मौका मिलता है तो वह अपना जलवा दिखा ही देती हैं।

Wednesday, October 13, 2010

ये कहां जा रहे हम???

पिछले दिनों की बात है, मुझे पैरेंटिंग पर हुए एक सेमिनार में भागीदारी करने का मौका मिला। पैरेंटिंग यानी बच्चों की परवरिश, आज के युग के युगलों की सबसे बड़ी समस्या। इस समस्या को सुनने और इसके निराकरण के लिए स्टेज पर बाकायदा कई विशेषज्ञ भी बुलाए गए। सेमिनार शुरू हुआ तो इसके बाद कई घंटे तक लगातार चलता रहा। मां अपनी बेटी के बदलते व्यवहार से नाराज थी तो पापा बेटे की आजादी से। एक मां ने बताया कि उनकी बेटी महज सात साल की है और अपने ब्वायफ्रेंड के साथ घूमने जाने की जिद करती है। मां के आंसू बता रहे थे कि वह अपनी बेटी में किस कदर अपना भविष्य देखती होंगी। खैर विशेषज्ञों ने अपनी महत्वपूर्ण राय दी। अब जो सीन सामने आया, उसने तो मेरे भी रोंगटे खड़े कर दिए। एक आधुनिकता का लबादा ओढ़े हुए मां जबर्दस्ती अपनी मजबूरी को अपनी बनावट के नीचे छिपाने की कोशिश कर रही थी। काफी देर तक मातापिता की अपनी औलाद को रोना रोने के बाद आखिरकार वह महिला भी इमोशनल हो ही गई। जब महिला इमोशनल हो जाती है तो तब वह न चाहते हुए भी बोलती चली जाती है। ऐसा ही हुआ उस महिला के साथ भी। महिला ने बताया कि वह कई सालों से दुबई में सैटल्ड है। इस बीच उसकी बेटी दस साल की हो गई। बेटी स्कूल में जाने लगी। बेटी का व्यवहार लगातार बदलता चला गया। इतना बदल गया कि अब बेटी, मां के बजाए अपने मेल फ्रेंड्‌स से मिलना और बातें करना ज्यादा पसंद करने लगी। मां ने काफी कोशिश की लेकिन कच्ची उमर में किसी को सही सलाह भी गलत ही नजर आती है। आखिरकार उस मां ने खुद को पश्चिमी संस्कृति के मुताबिक ढ़ालना शुरू किया। मां ने एक लैपटॉप खरीदकर सभी कम्यूनिटी साइट्‌स पर अपनी बेटी को अपनी फ्रेंड लिस्ट में शामिल किया। इसके बाद उसके प्रोफाइल पर उसके सभी फ्रेंड्‌स को भी अपना मित्र बनाया। अपनी बेटी को गलत रास्ते से बचाने के लिए उसके मित्रों से लंबीलंबी बातें की। बेटी तो यही चाहती थी। अपने संस्कार भूल चुकी बेटी इस कदर हाईटेक हो गई कि वह अपने मां और बाप के सम्मान को भी भूला बैठी। अब इस मां का दर्द यह था कि वह अपनी बेटी के साथ दो मिनट भी बैठकर बात नहीं कर सकती। बेटी अपने कमरे में बैठकर दोस्तों से चैटिंग करती रहती है और वह खाने का बुलावा भी अपनी बेटी को इंटरनेट के माध्यम से ही देती है, तब बेटी कमरे में खाना भेजने की इजाजत देती है तो मां उसके पास खाना पहुंचा देती है। इतनी कम उम्र में बेटी की इतनी दूरी उसे कहां लेकर जाएगी यह तो सोचने वाली बात है लेकिन भारतीय संस्कृति में पैदा हुए लोगों का इस कदर पश्चिमीकरण मैंने पहली बार देखा और सुना था। वास्तव में हम अपनी संस्कृति से लगातार दूर हटते जा रहे हैं। आधुनिकता के इस युग में अब चिंता इस बात की है कि हमारी नई पीढि़ इस हाईटेक और वेस्टर्न कल्चर के चक्कर में कहां जाकर रुकेगी? आज बेटी पापा की बात नहीं सुनती तो कल उसका भविष्य क्या होगा? बेटा, मम्मी को लगातार इग्नोर करता है तो कोई कुछ नहीं कर पाता। आपके लिए भी यह सवाल छोड़ रहा हूं कि आखिर हम कहां जा रहे हैं? कृप्या इस बात को गंभीरतापूर्वक सोचने के बाद ही इस पर अपना कमेंट लिखें.

Tuesday, October 12, 2010

बेचारी साइकिल बेचारे हम


पांच साल पहले की बात है जब घर से पत्रकारिता की पढ़ाई करने के लिए निकला था। तब घर छूटने के साथ ही मेरी हमजोली साइकिल भी मुझसे दूर हो गई थी। दिल्ली की भागदौड़ भरी जिंदगी में साइकिल नसीब से ऐसी दूर हुई कि आज तक मैं साइकिल की सवारी से दूर ही हूं। वक्त बीतता गया, साइकिल का बैलेंस और पैडल भी दिमाग से भूलता गया। आज अचानक साइकिल चलाने का मौका मिला तो मैं अपने इस अनुभव को शब्दों में बयां नहीं कर पा रहा हूं। आज जब पर्यावरणप्रेमी शर्मा जी साइकिल से मेरे पास आए तो मैं खुद को रोक नहीं पाया। मैं झट से साइकिल पर बैठ गया। इसके बाद पैडल मारा तो बैलेंस बनाना मुश्किल था। वैसे भी ज्यादातर समय बाइक पर गुजारने के बाद साइकिल चलाना अजीब सा अनुभव था। दिल कर रहा था कि मैं साइकिल से ही कहीं उड़ जाऊं। वहां, जहां मैं और मेरी आजादी हों, जहां मुझे कोई टोकने वाला न हो, जहां हर तरफ शांति हो, जहां सड़कों के लंबेलंबे जाम न हों। साइकिल के इस अनुभव ने एक पल में ही मेरी जिंदगी को पांच साल पीछे भेज दिया। तब खेत में साइकिल से जाने पर जो मजा आता था, वो शहर की इन खचाखच भरी सड़कों पर कहां। आज हम वक्त की रफ्तार से कंधे से कंधा मिलाकर चलने की होड़ में इस साइकिल को भले ही भूल गए हों लेकिन आज भी कई लोग इसे ही शान की सवारी समझते हैं। हम लगातार पर्यावरण बचाने की बातें करते हैं, पर्यावरण जागरुकता रैली को हरी झंडी दिखाकर रवाना करने के लिए कार से आते हैं, सोचने वाली बात तो यह है कि घर से महज कुछ पग की दूरी पर बने ऑफिस में बाइक या कार से जाना हम अपनी शान समझते हैं। बेचारी साइकिल ने खुद को जमाने के मुताबिक बदलने के लिए भले ही अपने अंदर गियर डाल लिए हों लेकिन दिखावे के इस जमाने में यह इंसानो से दूर ही है।

Monday, October 11, 2010

रौब का है जमाना

जमाना बदल रहा है। अब कोई मीडिया में काम करने वाला हो या किसी सरकारी विभाग में। अपनी यह पहचान वह दुनिया के सामने रखने में बिल्कुल भी हिमाकत नहीं करता। इसकी बेहतरीन नजीर है, दो साल पहले तक पान की दुकान करने वाले एक शख्स। देहरादून में रहने वाले इस शख्स का बेटा किसी लोकल स्तर के अखबार से जुड़ा था। बाप का झगड़ा हुआ तो बेटा तपाक से आ धमकता था। झगड़ा खत्म। बाप को यह बात जम गई तो उन्होंने झट से अपनी पान की दुकान पर ताला लटका दिया। अब पिताजी भी एक लोकल अखबार के संपादक हैं। तरक्की का सिलसिला जारी है। महाशय ने अब एक मारुति भी ले ली है और उस पर बड़े शब्दों में संपादक का बोर्ड भी लटका दिया है। श्रीमान अब शहर में बाइक लेकर निकलते हैं तो हेलमेट की जरूरत नहीं समझते। बेचारी ट्रेफिक पुलिस भी संपादक होने के नाते विवाद से बचना ही पसंद करती है। यह तो हुआ एक सामान्य सी पान की दुकान करने वाले का मीडिया रौब, लेकिन यह रौब सिर्फ मीडिया ही नहीं बल्कि दूसरी जगहों पर खूब देखा जाता है। पापा पुलिस में हैं तो बेटा बाइक पर बड़े अक्षरों में पुलिस लिखवाकर शहर में बिना हेलमेट के जमकर बाइक भांजता है। स्कूल का टीचर भी अब अपनी गाड़ी पर एजूकेशन डिपार्टमेंट लिखवाता है तो इंकम टैक्स ऑफिस में काम करने वाला इंप्लाई भी आयकर विभाग जरूर लिखवाता है। यहां तक तो सही था लेकिन रौब के जमाने की रफ्तार अपने सुरूर पर है। इसकी बानगी देखने को तब मिली जब एक मीडियाकर्मी का रिश्ते का साला भी अपनी कार पर प्रेस लिखवाकर चल पड़ा। कई सालों तक इसका इतना फायदा उठाया कि हम मीडियाकर्मी इसके बारे में सोच भी नहीं सकते। हद तो तब हो गई जब नगर निगम में कांट्रेक्ट पर काम कर रहे एक सफाई कर्मचारी ने अपनी बाइक पर नगर निगम बड़ेबड़े अक्षरों में लिखवाकर शहर में खूब मस्ती की। जब जनाब पकड़े गए तो दूध का दूध और पानी का पानी होने की वजह से वह पानीपानी हो गए। अब हम आपको बताते हैं कि यह रौब कई बार कितना भारी पड़ जाता है। हाल के दिनों में देहरादून में एक विधायक जी के साथ पुलिस ने मारपीट की। दरअसल मामला यूं था कि विधायक जी अपनी सत्ता की धौंस दिखा रहे थे। इस पर पुलिस भी अपनी हनक दिखाने लगी। बात बढ़ गई तो 'आन' पर आन पड़ी। फिर क्या था, पुलिस ने भी ले लिया विधायक जी को खोपचे में। इसके बाद भले ही कितना भी बवाल हुआ हो लेकिन यह सब मामला था रौब् का ही। यह सब उदाहरण बताते हैं कि अब हम चुपचाप रहने के बजाए अपने प्रोफेशनल का गीत पूरी जनता के सामने गाना चाहते हैं ताकि कल कोई अगर पकड़ भी ले तो वह समझ जाए कि उस पर हाथ डालना कितना मुश्किलों भरा हो सकता है।

Saturday, October 9, 2010

यह है समाज का काला चेहरा?

सुबह को ताजी हवा खाकर फ्रेश होने के बाद ऑफिस जाने की तैयारी कर ही रहा था कि मेरे खास दोस्त का फोन आ गया। कई महीनों से वह अपने कई सालों से चल रहे इंटर कास्ट अफेयर को लेकर परेशान था। उसकी परेशानी मुझसे देखी नहीं जाती थी तो मैं उसे कोर्ट मैरिज करने की सलाह दे डालता था। हालांकि मेरी सलाह गलत नहीं थी लेकिन मुझे यह भी अंदाजा नहीं था कि समाज के लिए यह आज भी उतना ही गलत है। मेरे दोस्त और उसकी प्रेमिका (जो कि अब पत्नी है) के सब्र की जब सारी सीमाएं टूट गई तो उसने खुद ही विवाह बंधन में बंधने का फैसला लिया। तब छोटा सा दिखने वाला यह फैसला कल कितना भारी साबित होने वाला है, इसकी जानकारी न तो मेरे प्रेमी पागल दोस्त को थी और न ही मुझ जैसे समझदार तबके के प्राणी को। शादी की तारीख तय हो गई, दोस्त ने दूसरे दोस्तों से फाइनेंशियल सपोर्ट ली तो सबने उसका साथ दिया। जैसेतैसे चुपचाप शादी भी हो गई, हम खुद ही बाराती बने और खुद ही घराती। लेकिन शादी के अगले दिन ही समाज का सच्चा चेहरा सामने आना शुरू हो गया। शुरुआत हुई मेरे दोस्त के पिताजी के फोन से। बेटे ने डरतेडरते फोन रिसीव क्या किया कि आज तक वह उन पलों को कोसता है। शादी की खुशी तब काफूर हो गई जब बचपन से पालन पोषण करने वाले पिताजी ने दो टूक जवाब दिया। पिताजी ने तो संपत्ति से बेदखल कर दिया लेकिन मुश्किलें कम होने वाली नहीं थी। धीरेधीरे समाज की तोहमतें मेरे दोस्त के हर दिन की शुरुआत करती। आज एक साल हो गया है, मेरा दोस्त आज भी मुझे ही अपना बाप समान मानता है। प्रोफेशनल होने के नाते उसके परिचितों की लंबी फेहरिस्त भी उसे अपनों से बिछड़ने के गम से दूर नहीं कर सकी। अब यह साहसिक परिवार दो से तीन होने जा रहा हैं लेकिन हमारे समाज की सोच आज भी दो टके की नहीं है। अपने दोस्त को हालांकि मैं किसी तरह की इमोशनल कमी महसूस नहीं होने देता लेकिन कब्र के अजाब को मुर्दा ही अच्छी तरह से जान सकता है। आए दिन कोई न कोई नई कहानी सामने आती है. ऐसी कहानियां जो कि हमारे समाज के अत्याधुनिक सोच को बयां करती हैं. रिश्तों की परिभाषाएं बदल रही हैं, मर्यादाएं भी पहले से काफी कमजोर हो चुकी हैं. लेकिन कहीं न कहीं आज भी हमारे समाज का रूढि़वादी चेहरा दिखाई दे रहा है। इंटर कास्ट मैरीज तो चोरी और मर्डर से भी बुरा जुर्म माना जाता है। मैं अपने दोस्त के लिए दुआएं करता हूं, आप भी उसके परिवार को उससे मिलाने के लिए दुआएं ही कर सकते हैं।

Friday, October 8, 2010

मुन्नी ही बदनाम क्यों हुई?

मुन्नी बदनाम हुई, डार्लिंग तेरे लिए...यह गीत आजकल हर एक की जुबान पर चढ़ा हुआ है। टीवी से लेकर मोबाइल तक इस गीत की बहार है। हर कोई झंडु बाम बनने के लिए बेताब सा दिखाई दे रहा है। गीत की खुमारी इस कदर है कि मीडिया में भी इस गीत को साक्षी मानकर खबरों की हेडिंग बनाने की पुरजोर कोशिश जारी है। सबकुछ ठीक है और होता आया है लेकिन किसी ने कभी यह सोचने की जरूरत नहीं समझी कि आखिर मुन्नी ही बदनाम क्यों हुई? मामूली से लगने वाले इस सवाल के पीछे जो सवाल छिपे हैं वह मॉर्डन कहलाने वाले इस युग में भी कहीं न कहीं महिला की इमेज की कहानी चीखचीखकर बयां कर रहा है। महिला, वैसे तो कवि की नजर में दो मात्राओं वाली होने के नाते नर पर भारी मानी गई है लेकिन समाज और हमारा नजरिया कुछ जुदा है। कवि कहता है कि 'एक नहीं दोदो मात्राएं, नर से भारी नारी', लेकिन सच्चाई आज भी वही है जो पुराने टाइम में महिलाओं को लेकर होती आई है। आज भी प्रोफेशनल महिला के चरित्र पर दाग लगने में दो पल भी नहीं लगते। आज भी अपने काम के चलते बॉस की वाहवाही लूटने वाली महिलाकर्मी को चरित्रहीन की उपाधि दे दी जाती है। इसकी बानगी मैंने खुद अपनी आंखों से देखी है। मेरा परम मित्र एक प्राइवेट कैमिकल कंपनी में जॉब करता है। मित्र से हर दूसरे दिन अगर बात न हो तो अजीब सा लगता है लेकिन इन दिनों वह जरा परेशान है। वजह बताने पर पहले हिचकता है लेकिन बाद में अपने दिमाग का पूरा फितूर मेरे सामने उगल देता है। उसने बताया कि पिछले महीने से उनकी कंपनी में एक लड़की की एंट्री हुई है। लड़की देखने में जितनी चंचल है, काम में भी उतनी ही फिट है। समस्या यहां हो गई है कि उस लड़की ने मेरे दोस्त की बॉस से नजदीकी और वाहवाही छीन ली है। इसकी वजह से मेरे प्यारे से दोस्त की जिंदगी का चैन छिन गया है। अंदर तक कुरेदने पर उसने बताया कि वह बॉस को जबर्दस्ती इंप्रेस करने पर लगी रहती है। इसकी वजह से बॉस के मन में भी शायद कुछ गलत फहमियां पैदा होने की वजह से उसके बॉस उसे इग्नोर करने लगे हैं। और गहराई तक जाने पर वह अपनी कलीग के बारे में जो बातें बताता है, वह मैं यहां नहीं लिख सकता, लेकिन उसकी बातों ने मेरे अंदर जो हलचल मचाई उसका सार बताता है कि मुन्नी ही बदनाम क्यों हुई है। क्या कईकई लड़कियों को नौकरी या दूसरे प्रलोभन देकर फलर्ट करने वाला बॉस बदनाम नहीं हो सकता। आज भी हमारा समाज महिलाओं को अपनी जूती के नीचे ही देखने का आदी है। हालांकि मैं भी एक पुरुष हूं लेकिन न जाने क्यों अपनी प्यारी सी और समर्पित पत्नी को याद कर मैं महिलाओं के प्रति सम्मान के नजरिए से भर जाता हूं।

Tuesday, October 5, 2010

जय हो ! सबकुछ बदल गया


१९वें कॉमनवेल्थ गेम्स की शुरुआत को लेकर खेल शुरू होने से पहले जो बेकरारी थी, वह अब खुशी में तब्दील होने लगी है। हमारे टेलेंट ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि भारत हो या दुनिया का कोई कोना, हम कहीं भी किसी से भी कम नहीं हैं। सुबह की शुरुआत अभिनव बिंद्रा और गगन नारंग के गोल्ड मेडल से हुई तो शाम होने तक भारत की झोली में सोने के तमगों की संख्या पांच हो चुकी थी। महीनों से कॉमनवेल्थ गेम्स की फजीहत करने पर जुटा मीडिया आज वाहवाही कर रहा था। इस फजीहत से बेशर्मी झेल रहे लोग भी आज गर्व महसूस कर रहे थे। भारत भूमि से पैदा हुए इस टेलेंट ने आखिर दुनिया को इंडिया की झलक जो दिखा दी। शाम को ऑफिस में जब पांचवे गोल्ड मेडल मिलने की खबर पता चली तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। दुनिया के कद्‌दावर खिलाड़ियों के सामने भारत की चुनौती सुविधाओं के लिहाज से भले ही कमजोर हो लेकिन गांधी के इस देश के युवा हर मुश्किल में भी हौंसला रखना जानते हैं। मैं दिल से सलाम करता हूं उन खिलाड़ियों को जिन्होंने मेरे देश और मेरा सिर गर्व से ऊंचा कर दिया है लेकिन आईना दिखाना चाहता हूं उस सिस्टम को जो कि खेल के सुधार के नाम पर महज अपनी जेबें भरने का काम करता है। जहां खेल और खिलाड़ियों के उत्थान के नाम पर मोटा पैसा लिया जाता है लेकिन नौकरशाह और हुक्मरान अपना उत्थान करने में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं। जय हो के उद्‌गार के साथ खत्म हुआ उद्‌घाटन समारोह आज मुझे दोबारा जय हो बोलने को उत्साहित कर रहा है।

Saturday, October 2, 2010

हम ऐसे सहेजतें हैं अपनी विरासतें


गांधी जयंती के मौके पर बापू की याद में हर साल हम जश्न मनाते हैं, कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं, नेताजी भी कार्यक्रमों में बतौर मुख्य अतिथि पहुंचकर बड़ीबड़ी बातें करते हैं। इसकी सच्चाई कुछ और ही है। जो दिखता है, वह कितना झूठ और फरेब होता है, इसकी झलक देखने को मिली देहरादून से महज ३० किलोमीटर दूर। बताया जाता है कि शहर से इतनी कम दूरी पर खारा खेत गांव में बापू ने १९३० ई। में नमक कानून तोड़ने के लिए नमक सत्याग्रह चलाया था। उनकी इस लड़ाई में गांव के लोगों ने भी बढ़ चढक़र हिस्सा लेते हुए पहाड़ से निकलने वाले नमक के पानी से नमक बनाया। इस जंग के लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा। आजादी मिली तो सबको गांधी के सपनों को पूरा होने का इंतजार था। सबको इंतजार था इस ऐतिहासिक जगह को एक नई पहचान दिलाने का। आज अर्सा बीत गया, लड़ाई में शरीक हुई वो पीढ़ी भी दुनिया से चल बसी। नई पीढिय़ां भी अपने बचपन से ही एक टूटे से स्मारक को देखती आ रही हैं, जिसका शिलान्यास १९८३ में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार के वित्त एवं योजना मंत्री ब्रहमदत्त ने किया था। तब इसे एक अलग पहचान दिलाने के लिए यहां सड़क तक की व्यवस्था भी करा दी गई थी। गांव के बलिदानी लोग भी सरकार और उसके नुमाइंदों की इस पहल से खुश थे। इन खुशी के पलों को सेलिब्रेट करने के लिए यहां हर साल की २० अप्रैल को एक मेला भी लगाया जाने लगा था। लेकिन अब यहां न तो कोई आने वाला है और न ही मेले की परंपरा बाकी रह गई है। इस राष्ट्रीय स्मारक के साथ ही मेले की परंपरा भी इतिहास के पन्नों में सिमट सी गई है। गांव के रहने वाले दीवान सिंह ने बताया कि यहां के पहाड़ से निकलने वाली पानी में आज भी नमक की उतनी ही मात्रा मौजूद है। आज भी जिन पत्थरों से पानी गुजरता है, वहां नमक की पर्त जम जाती है। अंग्रेजों ने भी इस पानी की खासियत को समझते हुए यहां नमक बनाने का काम शुरू किया था लेकिन आज यहां कोई पूछने तक नहीं आता। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगर उत्तराखंड की राजधानी के इतने निकटतम ऐतिहासिक स्थल पहचान को मोहताज है तो दूर दराज के बलिदान और ऐतिहासिक विरासतों का क्या हाल होगा।
जय हिंद...