घर की बालकनी
में दो पल सुकून के तलाशते हुए अचानक ही एक अखबारी कागज की घर की बनाई हुई पतंग पर
नजर चली गई. पतंग जिस तरह हवा में गोते खा रही थी, उसे देखकर बरबस ही पुराने दिनों
की यादें ताजा हो गई. ऐसी यादें जो कभी जब हवा की रफ्तार से उठती हैं तो हवा के हल्केपन
के बजाए मन मस्तिष्क पर एक भारी सा बोझ पैदा कर देती हैं. पुराने नजारे को देखते और
सोचते हुए ही मैं अपने अतीत में चला गया.
स्कूल से
छुट््टी हुई तो गांव में पतंगबाजी ही पढ़ाई से भी महत्वपूर्ण काम माना जाता था. माता
और पिता का पढ़कर आगे बढऩे का फरमान तो जैसे इस जोश में तुरंत एक गुब्बारे के पंक्चर
की माफिक महसूस होता था. शुरुआती दिनों में जब घर के आंगन में आई हुई एक पतंग में थोड़ी
सी सादी, डोर बांधकर उड़ाया तो लगा जैसे पंतग नहीं हवा के साथ-साथ खुद गोते खा रहा
हंू. अभी आनंद अपने चरम पर भी नहीं पहुंचा था कि पीछे से मां की कर्कश सी लगने वाली
आवाज ने कानों ही नहीं पूरे शरीर में एक विरोध का भाव पैदा कर दिया. आज भी तमाम ऐसे
मां बाप हैं जो कि अपने बच्चे को पंतग इसलिए नहीं उड़ाने देते कि कहीं वह बिगड़ न जाए
या फिर कहीं उसकी परसेंटेज कम न रह जाए. लेकिन बालमन तो बावरा होता है, भला कहां किसी
की सुनता है. सुनता है तो करता तो खुद के ही मन की है. सो, मैं भी आंख चुराकर चल पड़ता
पतंग उड़ाने. हवा के रुख के चलते हर दिन कम से कम एक पतंग को कटकर घर पर आ ही जाती
थी. सो मेरे पास पतंग का स्टॉक भी खासा था. बस मां, उड़ाने दे, तब ना.
एक दिन हनक
चढ़ी और अपने एक मित्र के साथ चल पड़ा मांझा खरीदने. खूब पतंगबाजी की और दिनभर खूब
मजा लिया. शाम को पिताजी की डांट ने हालांकि इस आनंद का नशा पलभर में काफूर कर दिया.
खैर, पतंग के बहाने ही बात चली तो आपने खुद भी अपने आसपास तमाम पंतगबाजी के नजारे देखे
होंगे. कईं पतंगबाजी के माहिर भी देखे होंगे, जो कि अपने एक तिरछे पेंच से झट से सामने
वाले की पतंग को धराशाई कर देता था. हमारे मोहल्ले में तो कई ऐसे नामी पतंगबाज थे,
जो कि अपने एक ही दांव से सबको चारो खाने चित्त कर देने में माहिर थे.
मुझे इस बात
का रंज है कि मैं इस अपने देसी अंदाज को जमकर न जी पाया. दुख इसलिए भी बढ़ जाता है
कि मैं मां-बाप की इंजीनियरिंग और मास्टरी की अपेक्षाओं पर पतंगबाजी से दूर रहने के
बावजूद खरा नहीं उतरा. चिंता इस बात की है कि मुझे अगर मेरी इच्छाओं के साथ पढऩे का
मौका मिलता तो शायद कुछ और ही नजारा होता.
तभी पीछे
से मेरी छोटी से नन्हीं तीन माह की बिटिया के रोने की आवाज आई. उसकी आवाज जैसे मुझे
इशारा कर रही थी कि पापा, आप तो दोगे ना मुझे वह आजादी. मैं अपने दायरों से वाकिफ हंू,
बस आप मुझे हिम्मत देते रहना, मैं आगे बढ़ती जाऊंगी. अब आकाश में न तो वह अखबारी पतंग
थी और न वह यादें. शायद किसी मेरे जैसे बच्चे ने अपने मां-बाप से आंख बचाकर यह पतंग
खुद ही बनाकर उड़ाने की कोशिश की होगी...