
मैं, देहरादून में जर्नलिस्ट हूँ। बड़ा गर्व अनुभव करता हूँ लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ बनकर। आने से पहले सोचता था की अपने विचारो से बदलाव की एक बयार चला दूँगा। लेकिन मुझे क्या पता था की समाज की सोच कितनी संकीर्ण हो गई है। एक रूम की तलाश में १० दिनों तक भटकता रहा, बात हो जाती लेकिन मुसलमान होने का पता चलते ही मुझे रूम देने से मन कर दिया जाता। हालाँकि उन्हें मैं ये भी बताने से नही चुकता की मैं पत्रकार हूँ, इसके बावजूद मेरा मुस्लमान होना मेरे पेशे पर भरी पड़ जाता। आखिरकार एक हिंदू भाई ने मुझे आसरा देने के लिए मेरी गारंटी ली। तब कहीं जाकर मैं एक रूम तलाश कर सका। लेकिन बदलती सोच के बारे में सोचकर मैं अन्दर तक झल्ला गया। आखिर हर मुसलमान आंतकवादी तौ नही है.