हिंदू आतंकवाद, नाम जुबान पर आया तो जैसे बवाल होना शुरू। राहुल गांधी ने इसका नाम लिया तो विपक्षियों ने जैसे जान की आफत बना दी। अब यूपी के एक नेता आजम खां ने इसका नाम लिया तो सियासी भूचाल फिर अपने चरम पर आ गया। भगवा या हिंदू आतंकवाद को लेकर बवालों का यह सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। समझ नहीं आता कि इस शब्द पर इतनी आपत्ति क्यों है?
पिछले कुछ सालों में आतंकवाद के बदलते परिदृश्य पर नजर डालें तो बात साफ होती दिखाई दे रही है। कल तक जब कोई मुस्लिम कहीं आतंकवाद के शक पर गिरफ्तार किया जाता था तो उसे इस्लामिक आतंकवाद का नाम दिया जाता था। पड़ोसी देश पाकिस्तान के इस आतंकवाद ने हमें इस कदर झुंझलाहट से भर दिया कि अब इस्लाम का मतलब आतंकवाद ही नजर आने लगा। हर इस्लाम धर्म वाला कहीं न कहीं शक की निगाहों से देखा जाने लगा। आतंकवाद का दायरा बढ़ा तो कई हिंदू नाम और संगठन भी इसमें अग्रणी दिखाई दिए। यानी साध्वी प्रज्ञा का नाम हो या विस्फोट के आरोप में पकड़े गए दूसरे गैर मुस्लिमों का, हर कोई काम वही कर रहा है जो इस्लामिक आतंकवाद वाले आतंकवादी करते हैं। अब अगर मुस्लिम आतंकवादियों को इस्लामिक आतंकवाद की संज्ञा दी जाती है तो भला हिंदू आतंकवादियों को हिंदू आतंकवाद का नाम देने में बुराई क्या है। आज भी अगर एक मुसलमान किसी शक पर गिरफ्तार किया जाता है तो उसे मीडिया में भी आतंकवादी की संज्ञा साबित होने से पहले ही दे दी जाती है, जबकि अगर कोई हिंदू विस्फोट के शक में गिरफ्तार किया जाता है तो उसे आतंकवादी नहीं आरोपी कहा जाता है।
मैं दोनों धर्मों का दिल से सम्मान करता हंू और जहां तक मैं मानता हंू कि इस आतंकवाद शब्द से वास्ता रखने वाले लोगों का कोई धर्म ईमान ही नहीं होता। जो इंसान होता है उसके लिए तो सब बराबर होते हैं, चाहे हिंदू हो या मुसलमान। मेरा तो मानना है कि इस शब्दों को बढ़ावा देने वाली या तो हमारी मीडिया है या फिर हमाने वोट के पुजारी नेता। नेताओं ने एक जरा सी बात को इस कदर चढ़ा दिया है कि आम इंसानों में जहर भरने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। आखिर हम आम जनता को इस बात से क्या फर्क पड़ता है, हमारे पड़ोसी गुप्ता जी को कल हमारे साथ ही ईद मनानी है तो हमें भी उनके साथ ही दीवाली की खुशियों के पटाखे फोडऩे हैं. हमारा देश ऐसा है कि यहां लाख दीवारें खड़ी करने की कोशिश की गई हैं लेकिन हम सब कहीं न कहीं, किसी न किसी मंच पर एक ही खड़े दिखाई दिए हैं।
विचार कभी सामान्य नहीं होते
विचार तो मन में आते हैं लेकिन हम उन्हें सही दिशा नहीं दे पाते। अपनी आंखों के सामने हर पल कुछ नया देखते हैं लेकिन उसके बारे में सोच नहीं पाते, अगर सोचते हैं तो शब्दों में ढ़ालना मुश्किल है। शब्दों में ढ़ाल भी दें तो उसे मंच देना और भी मुश्किल है। यहां कुछ ऐसे ही विचार जो जरा हटकर हैं, जो देखने में सामान्य हैं लेकिन उनमें एक गहराई छिपी होती है। ऐसे पल जिन पर कई बार हमारी नजर ही नहीं जाती। अपने दिमाग में हर पल आने वाले ऐसे भिन्न विचारों को लेकर पेश है मेरा और आपका यह ब्लॉग....
आपका आकांक्षी....
आफताब अजमत
Friday, December 24, 2010
Thursday, December 23, 2010
कहीं हम मैंगो पीपुल के लिए वीआईपी न बन जाए प्याज
प्याज, वह नाम जो हर आम आदमी की जुबान पर आते ही कड़वा स्वाद खुद पैदा कर देता है। हालांकि कल तक यह प्याज हम सबका चहेता था। हम रेस्टोरेंट में भोजन करने जाते थे तो खाने के थाली के साथ फ्री में खूब सजावट के साथ हमारे सामने पेश किया जाता था। आज हम खाना खाने जाते हैं तो प्याज खाने के लिए डिमांड करनी पड़ती है। लगता है जैसे प्याज अब वीआईपी नंबर सरीखा हो चुका है, जो कि सिर्फ डिमांड पर ही ज्यादा पैसे देकर लिया जाता है। नेताजी हों या दूसरे वीआईपी उनके लिए तो आज भी इसकी वैसी ही वैल्यू है, जैसी पहले थी।
कई दिनों से प्याज की महंगाई की खबर पढऩे और लिखने के बाद आज आखिरकार प्याज खरीदने की बारी आई। घर से प्याज खरीदने के लिए निकलते वक्त दिल धुक-धुक कर रहा था, जैसे सोना खरीदने से पहले करता है कि कहीं फिर दाम न बढ़ गए हों। हालांकि मुझे इस बात का गर्व था कि आज मैं इतना महंगा प्याज खरीदने जा रहा हंू, लेकिन दुख इस बात का था कि मेरे जैसे हजारों आम आदमी इससे दूर हो चुके थे। ऊपर से दाम बढऩे की आशंका ने इस डर को और बढ़ा दिया। मार्केट पहुंचा तो राहत मिली कि प्याज के दाम पांच रुपए कम हो गए थे। लेकिन यह कितने समय रहे होंगे, कहना मुश्किल है। जिस रफ्तार से प्याज के दाम बढ़े हैं, तो लगता है जैसे शताब्दी एक्सप्रेस भी शर्मा जाएगी। अरे, मुझे तो अब ऐसा लगने लगा है कि प्याज कहीं कल वीआईपी न हो जाए। भई, महंगी चीजें तो आम आदमी से दूर ही होती हैं लेकिन वीआईपी के लिए हर तरह से उपलब्ध होती हैं। अभी आप देख सकते हैं कि हम आम आदमी की किचन में प्याज की मात्रा नगण्य सी होगी लेकिन नेताजी या हमारे दूसरे वीआईपीज की किचन में बोरियों के तादाद में प्याज होगा। अब अगर प्याज वीआईपी बन गया तो हम मैंगो पीपुल का क्या होगा?
कई दिनों से प्याज की महंगाई की खबर पढऩे और लिखने के बाद आज आखिरकार प्याज खरीदने की बारी आई। घर से प्याज खरीदने के लिए निकलते वक्त दिल धुक-धुक कर रहा था, जैसे सोना खरीदने से पहले करता है कि कहीं फिर दाम न बढ़ गए हों। हालांकि मुझे इस बात का गर्व था कि आज मैं इतना महंगा प्याज खरीदने जा रहा हंू, लेकिन दुख इस बात का था कि मेरे जैसे हजारों आम आदमी इससे दूर हो चुके थे। ऊपर से दाम बढऩे की आशंका ने इस डर को और बढ़ा दिया। मार्केट पहुंचा तो राहत मिली कि प्याज के दाम पांच रुपए कम हो गए थे। लेकिन यह कितने समय रहे होंगे, कहना मुश्किल है। जिस रफ्तार से प्याज के दाम बढ़े हैं, तो लगता है जैसे शताब्दी एक्सप्रेस भी शर्मा जाएगी। अरे, मुझे तो अब ऐसा लगने लगा है कि प्याज कहीं कल वीआईपी न हो जाए। भई, महंगी चीजें तो आम आदमी से दूर ही होती हैं लेकिन वीआईपी के लिए हर तरह से उपलब्ध होती हैं। अभी आप देख सकते हैं कि हम आम आदमी की किचन में प्याज की मात्रा नगण्य सी होगी लेकिन नेताजी या हमारे दूसरे वीआईपीज की किचन में बोरियों के तादाद में प्याज होगा। अब अगर प्याज वीआईपी बन गया तो हम मैंगो पीपुल का क्या होगा?
Tuesday, December 21, 2010
लब खोलता नहीं कोई जुल्म…
साल शुरू होते हुए महंगाई डायन का प्रकोप ऐसा शुरू हुआ कि साल बीतने के साथ ही आल इज नोट वेल में तब्दील होता दिखाई दे रहा है। साल के शुरू में आमिर खान की फिल्म थ्री इडियट के डायलॉग आल इज वेल ने आम जनता को एक राहत दी थी, कि जब भी कभी कोई आपत्ति आए तो आप इस वाक्य को ‘अहं ब्रह्मास्मि की तर्ज पर बोलकर दिल को समझा सकते हैं। साल बीतने के साथ ही यह आल इज वेल, महंगाई डायन की वजह से नोट वेल में तब्दील होता जा रहा है। महंगाई तेजी से बढ़ रही है लेकिन हर तरफ खामोशी है।
मुझे आज भी याद हैं बीजेपी सरकार के वो दिन जब मेरे एक गुरुजन ब्रहमदत्त शर्मा ने एक कविता लिखी थी-
‘80 रुपए प्याज हैं बिके, 20 रुपए हैं सेव, जनता का घर लूट कर अपना घर भर लेव।
तब बीजेपी को इस महंगाई की वजह से सत्ता गंवानी पड़ी थी। तब लगता था कि जरा सी महंगाई जनता पर कितना प्रभाव डालती है। लेकिन अब कांग्रेस सरकार को इतना लंबा समय हो गया। लोगों की महंगाई कम होने की उम्मीदें दूर होती दिखाई दे रही हैं। हालात इस कदर चिंताजनक हैं कि सरकार ने तेल मूल्यों से अपना नाम जनता को बरगलाने को हटा तो लिया लेकिन बहुत कम लोगों को इसकी जानकारी होगी कि किरीट पारिख समिति की सिफारिशों को जून में लागू कर दिया गया था। इसके तहत पेट्रोलियम पदार्थों के दामों के विनियमन की सिफारिश की गई थी। इस विनियमन (अब तेल के दाम सरकारी कंपनियां तय करती हैं, लेकिन बढ़ाने से पहले सरकार की इजाजत जरूरी) के बाद पेट्रोलियम पदार्थों के दाम में पिछले छह महीने में पांच बार बढ़ोतरी हुई है। पेट्रोल के दामों पर अगर सालभर गौर करें तो पता चलता है कि इनमें एक साल में सात बार अभी तक बढ़ोतरी हो चुकी है। तेल महंगा, खाना महंगा, अब तो प्याज फिर बीजेपी सरकार की याद दिला रही है। प्याज के दामों में अचानक से उछाल दर्ज किया गया है, जिससे यह दो दिन के अंदर ही 30 रुपए किलो से बढ़कर 70 रुपए किलो तक पहुंच गए हैं। नेताजी घोटालों में बिजी हैं, वोट देकर सत्ता दिलाने वाले बेचारे हम महंगाई डायन के असर से आजिज हैं। कोई कुछ बोलने को तैयार ही नहीं है। आज मुझे एक शायर की वो शायरी याद आ रही है-
‘लब खोलता नहीं कोई जुल्म के खिलाफ
ताले लगे हों जैसे सभी की जुबान में
मुझे आज भी याद हैं बीजेपी सरकार के वो दिन जब मेरे एक गुरुजन ब्रहमदत्त शर्मा ने एक कविता लिखी थी-
‘80 रुपए प्याज हैं बिके, 20 रुपए हैं सेव, जनता का घर लूट कर अपना घर भर लेव।
तब बीजेपी को इस महंगाई की वजह से सत्ता गंवानी पड़ी थी। तब लगता था कि जरा सी महंगाई जनता पर कितना प्रभाव डालती है। लेकिन अब कांग्रेस सरकार को इतना लंबा समय हो गया। लोगों की महंगाई कम होने की उम्मीदें दूर होती दिखाई दे रही हैं। हालात इस कदर चिंताजनक हैं कि सरकार ने तेल मूल्यों से अपना नाम जनता को बरगलाने को हटा तो लिया लेकिन बहुत कम लोगों को इसकी जानकारी होगी कि किरीट पारिख समिति की सिफारिशों को जून में लागू कर दिया गया था। इसके तहत पेट्रोलियम पदार्थों के दामों के विनियमन की सिफारिश की गई थी। इस विनियमन (अब तेल के दाम सरकारी कंपनियां तय करती हैं, लेकिन बढ़ाने से पहले सरकार की इजाजत जरूरी) के बाद पेट्रोलियम पदार्थों के दाम में पिछले छह महीने में पांच बार बढ़ोतरी हुई है। पेट्रोल के दामों पर अगर सालभर गौर करें तो पता चलता है कि इनमें एक साल में सात बार अभी तक बढ़ोतरी हो चुकी है। तेल महंगा, खाना महंगा, अब तो प्याज फिर बीजेपी सरकार की याद दिला रही है। प्याज के दामों में अचानक से उछाल दर्ज किया गया है, जिससे यह दो दिन के अंदर ही 30 रुपए किलो से बढ़कर 70 रुपए किलो तक पहुंच गए हैं। नेताजी घोटालों में बिजी हैं, वोट देकर सत्ता दिलाने वाले बेचारे हम महंगाई डायन के असर से आजिज हैं। कोई कुछ बोलने को तैयार ही नहीं है। आज मुझे एक शायर की वो शायरी याद आ रही है-
‘लब खोलता नहीं कोई जुल्म के खिलाफ
ताले लगे हों जैसे सभी की जुबान में
Monday, December 6, 2010
...और वो भी चल बसी
सोमवार की सुबह हर अखबार में एक छोटी मगर दर्दनाक खबर छपी थी- पिता की डांट से क्षुब्ध होकर बेटे ने खुद को गोली मारी। यह दर्दनाक खबर अगले दिन उस बेटे की मौत के साथ ही और भी दुखदायी हो गई। बाप अपने इकलौते बेटे की चिता को आग लगाने से पहले गम की आग में खुद जल रहा था कि मंगलवार के अखबारों की सुर्खियों में इसी परिवार की दूसरी मुसीबत की खबर छपी। यह खबर थी, उस बहू की जो कि महज कुछ घंटे ही विधवा जैसी रह पाई। अपने पति की मौत का गम इस बहू को इस कदर हुआ कि उसने भी खुदकुशी कर ली।
देहरादून के रहने वाले एक परिवार में दो दिन पहले ही खुशियों का जश्न मनाया गया था। इस जश्न की वजह थी, बहू की गोद भराई। बेटे ने भी अपनी पत्नी को इस खुशी के बदले में एक एक्टिवा गिफ्ट करने का वादा किया था। बहू भी इस परिवार के वंश को आगे बढ़ाने को लेकर आतुर थी। लेकिन...
यह क्या, बेटा रात को शराब पीकर आया, पिताजी ने शराब न पीने की हिदायत दी। थोड़ी देर के बाद बेटे ने बाथरूम में जाकर खुद को अपने लाइसेंसी पिस्टल से गोली मार ली। गोली खोपड़ी में लगी तो बेटे को आनन फानन में हॉस्पिटल में एडमिट कराया गया। बूढ़ा बाप अपने बुढ़ापे के सहारे को बचाने के लिए भगवान से रातभर आंसू बहाकर प्रार्थना करता रहा, मां को तो जैसे कोख उजडऩे के नाम पर भी बेहोशी सी छा रही थी। आखिरकार बेटे ने मंगलवार की सुबह दुनिया से विदा ले लिया। बेटे का पोस्टमार्टम कराकर अभी उसे घर ला भी नहीं पाए थे कि पति की मौत के विलाप से टूट चुकी पत्नी ने घर की तीसरी मंजिल पर जाकर नीचे छलांग लगा दी। दो पल में ही बहू भी इस दुनिया से विदा हो गई और इसके साथ ही विदा हो गई वह उम्मीदें, जो इस परिवार का एक वारिस लेकर आने वाली थी। इसके साथ ही गुम हो गई वह आस, जो इन मां-बाप के बुढ़ापे का सहारा बनने वाली थी।
बेटा और बहू अब इस दुनिया में नहीं हैं। बीती जनवरी को दोनों की बड़ी शान से शादी हुई थी, लेकिन किसी को यह नहीं पता था कि यह युगल अपनी शादीशुदा जिंदगी का एक साल भी पूरा नहीं कर पाएगा। अपनी नादानी कहें या जज्बात, वह तो इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन अपनी मौत के साथ ही उन लोगों को भी अधमरा कर गए, जो कि कभी उन्हें अपनी शान समझते थे। आज इस परिवार पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा है। यह दुख न केवल इस परिवार बल्कि पूरे देहरादून शहर को है। बहू ने खुद को पति के वियोग में मौत के हवाले कर दिया लेकिन उन परिजनों का हाल किसी से देखा नहीं जा रहा है।
हम कई बार बेहद जज्बाती होकर कोई गलत कदम उठा लेते हैं लेकिन हम एक बार भी यह नहीं सोचते कि हमारे बाद हमारे परिवार का क्या होगा? उस मां का क्या होगा, जिसने नौ महीने तक अपनी कोख में रखकर, लाख दुख सहकर हमें जन्म दिया। उस बाप का क्या होगा, जिसने अपने बेटे में अपना भविष्य देखा, जो बेटे को अपने बुढ़ापे का सहारा समझता था। मेरी सभी से अपील है कि वह भले ही कितना भी दुख में हों, चिंता में हों लेकिन जिंदगी को हमेशा पॉजिटीव अंदाज में जिएं. जिंदगी एक बार मिलती है तो दुख और सुख तो इसके दो पहलू हैं। आज अगर सितारे गर्दिश में हैं तो कल एक नई सुबह कई खुशियां भी लेकर आएगी। खुदकुशी करने वालों को कायर कहा जाता है और मुश्किलों का डटकर सामना करने वाले शान से जीते हैं।
देहरादून के रहने वाले एक परिवार में दो दिन पहले ही खुशियों का जश्न मनाया गया था। इस जश्न की वजह थी, बहू की गोद भराई। बेटे ने भी अपनी पत्नी को इस खुशी के बदले में एक एक्टिवा गिफ्ट करने का वादा किया था। बहू भी इस परिवार के वंश को आगे बढ़ाने को लेकर आतुर थी। लेकिन...
यह क्या, बेटा रात को शराब पीकर आया, पिताजी ने शराब न पीने की हिदायत दी। थोड़ी देर के बाद बेटे ने बाथरूम में जाकर खुद को अपने लाइसेंसी पिस्टल से गोली मार ली। गोली खोपड़ी में लगी तो बेटे को आनन फानन में हॉस्पिटल में एडमिट कराया गया। बूढ़ा बाप अपने बुढ़ापे के सहारे को बचाने के लिए भगवान से रातभर आंसू बहाकर प्रार्थना करता रहा, मां को तो जैसे कोख उजडऩे के नाम पर भी बेहोशी सी छा रही थी। आखिरकार बेटे ने मंगलवार की सुबह दुनिया से विदा ले लिया। बेटे का पोस्टमार्टम कराकर अभी उसे घर ला भी नहीं पाए थे कि पति की मौत के विलाप से टूट चुकी पत्नी ने घर की तीसरी मंजिल पर जाकर नीचे छलांग लगा दी। दो पल में ही बहू भी इस दुनिया से विदा हो गई और इसके साथ ही विदा हो गई वह उम्मीदें, जो इस परिवार का एक वारिस लेकर आने वाली थी। इसके साथ ही गुम हो गई वह आस, जो इन मां-बाप के बुढ़ापे का सहारा बनने वाली थी।
बेटा और बहू अब इस दुनिया में नहीं हैं। बीती जनवरी को दोनों की बड़ी शान से शादी हुई थी, लेकिन किसी को यह नहीं पता था कि यह युगल अपनी शादीशुदा जिंदगी का एक साल भी पूरा नहीं कर पाएगा। अपनी नादानी कहें या जज्बात, वह तो इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन अपनी मौत के साथ ही उन लोगों को भी अधमरा कर गए, जो कि कभी उन्हें अपनी शान समझते थे। आज इस परिवार पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा है। यह दुख न केवल इस परिवार बल्कि पूरे देहरादून शहर को है। बहू ने खुद को पति के वियोग में मौत के हवाले कर दिया लेकिन उन परिजनों का हाल किसी से देखा नहीं जा रहा है।
हम कई बार बेहद जज्बाती होकर कोई गलत कदम उठा लेते हैं लेकिन हम एक बार भी यह नहीं सोचते कि हमारे बाद हमारे परिवार का क्या होगा? उस मां का क्या होगा, जिसने नौ महीने तक अपनी कोख में रखकर, लाख दुख सहकर हमें जन्म दिया। उस बाप का क्या होगा, जिसने अपने बेटे में अपना भविष्य देखा, जो बेटे को अपने बुढ़ापे का सहारा समझता था। मेरी सभी से अपील है कि वह भले ही कितना भी दुख में हों, चिंता में हों लेकिन जिंदगी को हमेशा पॉजिटीव अंदाज में जिएं. जिंदगी एक बार मिलती है तो दुख और सुख तो इसके दो पहलू हैं। आज अगर सितारे गर्दिश में हैं तो कल एक नई सुबह कई खुशियां भी लेकर आएगी। खुदकुशी करने वालों को कायर कहा जाता है और मुश्किलों का डटकर सामना करने वाले शान से जीते हैं।
Sunday, December 5, 2010
फतवा सलाह है, फरमान नहीं
आमतौर पर हर दिन कहीं न कहीं से सुनने को मिल जाता है कि फलां आदमी या सेलेब्रिटी के खिलाफ फतवा जारी हो गया है। फतवे को लेकर हमारी जनता में इस कदर कंफ्यूजन की स्थिति पैदा हो गई है कि हम इसे फरमान समझ बैठते हैं। अगर इस बात की तह तक जाएं तो पता चलता है फतवा महज एक कानूनी सलाह है, फरमान नहीं।
फतवा एक अरबी भाषा का शब्द है, जिसका मायना होता है इस्लाम के नजरिए से सलाह। अब जब यहां सलाह शब्द आ जाता है तो जाहिर तौर पर यह बात भी सामने आ जाती है कि सलाह सिर्फ मांगने पर ही दी जाती है। जब तक आप किसी से कोई सलाह मांगेगे नहीं तो कोई क्यों देगा? इस सलाह को देने वाला भी कोई आम शख्स नहीं होता। इसे देने वाले विद्वान को मुफ्ती कहा जाता है। यह वो शख्स होता है, जो कि इस्लाम का बारीकी से अध्ययन करता है।
फतवे को लेकर तरह-तरह की अवधारणाएं बनी हुई हैं या यंू कहें कि इसका नाम दिमाग में आते ही इ्रस्लामिक कट्टरता सामने आ जाती है। इस्लाम को लेकर भी कई तरह की बातें होती हैं। हर धर्म में ऐसे विद्वान होते हैं जो कि धर्म की बारीकी से जानकारी रखते हैं। इस्लाम धर्म में भी यह काम मुफ्ती करते हैं, जो कि केवल मांगने पर ही फतवा देते हैं। फतवे जारी होने को लेकर कई तरह की बातें सामने आई हैं, जैसे फलां के खिलाफ फतवा जारी हुआ। यह जारी होता है लेकिन इसे लागू नहीं कहा जा सकता। इस्लाम की रोशनी में दी जाने वाली इस सलाह को मानना या नहीं मानना हमारे अपने ऊपर निर्भर करता है। इसलिए हम कह सकते हैं कि फतवे को लेकर कट्टरता का भाव रखना गलत है।
फतवा एक अरबी भाषा का शब्द है, जिसका मायना होता है इस्लाम के नजरिए से सलाह। अब जब यहां सलाह शब्द आ जाता है तो जाहिर तौर पर यह बात भी सामने आ जाती है कि सलाह सिर्फ मांगने पर ही दी जाती है। जब तक आप किसी से कोई सलाह मांगेगे नहीं तो कोई क्यों देगा? इस सलाह को देने वाला भी कोई आम शख्स नहीं होता। इसे देने वाले विद्वान को मुफ्ती कहा जाता है। यह वो शख्स होता है, जो कि इस्लाम का बारीकी से अध्ययन करता है।
फतवे को लेकर तरह-तरह की अवधारणाएं बनी हुई हैं या यंू कहें कि इसका नाम दिमाग में आते ही इ्रस्लामिक कट्टरता सामने आ जाती है। इस्लाम को लेकर भी कई तरह की बातें होती हैं। हर धर्म में ऐसे विद्वान होते हैं जो कि धर्म की बारीकी से जानकारी रखते हैं। इस्लाम धर्म में भी यह काम मुफ्ती करते हैं, जो कि केवल मांगने पर ही फतवा देते हैं। फतवे जारी होने को लेकर कई तरह की बातें सामने आई हैं, जैसे फलां के खिलाफ फतवा जारी हुआ। यह जारी होता है लेकिन इसे लागू नहीं कहा जा सकता। इस्लाम की रोशनी में दी जाने वाली इस सलाह को मानना या नहीं मानना हमारे अपने ऊपर निर्भर करता है। इसलिए हम कह सकते हैं कि फतवे को लेकर कट्टरता का भाव रखना गलत है।
Saturday, November 27, 2010
यह गरीबी आपको रुला देगी
हमारे नेता घोटाले कर विदेशी बैंकों में काला धन जमा कर रहे हैं। उद्योगपति विदेशी कंपनियों को खरीदने के साथ ही इतने आलीशान बंगले बना रहे हैं, जिनका बिजली का बिल भी एक महीने में 60 लाख रुपए तक पहुंचता है। दुनिया के सामने देश की एक अलग तस्वीर पेश की जा रही है। वह तस्वीर जिसमें सबकुछ चकाचौंध भरा है, जिसकी चमक इतनी है कि भारत की गरीबी कहीं गुम सी हो गई है। सरकारें लाख दावे कर रही है लेकिन नतीजा आज भी हमारे सामने है। इन दावों के गुबार से निकलने वाला धुंआ कहीं न कहीं घोटाले की बू लेकर आता है। वोट देने वाली जनता आज भी दो जून की रोटी के लिए तरसती है तो काहे का यंग इंडिया, काहे का पावरफुल इंडिया? आज जो मैंने देखा, अगर आप भी उसे महसूस करेंगे तो रो पड़ेंगे और कोसेंगे उन मुखियाओं को जिनके कंधों पर देश चलाने की जिम्मेदारी है, उस सिस्टम को जिसमें करप्शन अंदर तक इतना गहरा चुका है कि इससे बचने की कोशिश करने वाला भी इसमें डूबने से नहीं बच पाता।
कई दिनों से एक घर से एक खबर आ रही थी। खबर थी कि एक लड़की को घर चलाने के लिए ऑटो रिक्शा चलाने से लोगों ने मना कर दिया। इस पक्षपात भरी खबर को निष्पक्ष अंजाम तक पहुंचाने के लिए मैं उस घर में पहुंच गया। वहां जाने के रास्ते में मेरा स्वागत बदबू से हुआ तो भी आदत के मुताबिक मैं ज्यादा अनकंफर्ट नहीं हुआ। घर में एक जवान बेटी और एक बूढ़ी मां, बेटी के हाथ पीले करने की आस में हर पल दरवाजा ताकती दिखाई देती है। मैं अंदर पहुंचा तो शर्म और लज्जा का लबादा ओढ़े वह बेटी एक टूटे से कमरे में जाकर बैठ जाती है। मैं माताजी को नमस्ते करके वहां बैठ जाता हंू और पूरी बात पता करने की कोशिश करता हंू। माता जी मुझे अपना भगवान मानकर चाय पिलाने का आमंत्रण देती है लेकिन मैं अस्वीकार कर देता हंू।
मैंने परेशानी पूछनी शुरू की तो उन्होंने जो बताया, वह हमारे आज के इस सिस्टम, इस राजनीति और विकसित देश की बातें करने वाले विद्वानों के मुंह पर एक तमाचा है। बूढ़ी औरत ने बताया कि उसका एक बेटा है जो कि हाथ जलने के कारण मजदूरी से भी मजबूर हो चुका है। एक जवान बेटी है जो कि पहले रिक्शा चलाकर कुछ पैसे कमाती थी लेकिन अब जवान हो गई है तो समाज की तीखी निगाहों की वजह से यह भी बंद करना पड़ा। घर में एक किलो आटा तक नहीं है। घर पूरी तरह से जर्जर हो चुका है, इतना बेकार कि अब इसमें रात को लेटते समय सुबह को जिंदा बचने की कोई उम्मीद नहीं की जाती। आंसुओं को पोंछती हुई बताती है कि रात जब घर में आटा नहीं था और पैसे भी नहीं थे तो उन्होंने दस रुपए के सिंघाडे लेकर पेट भरा। राजधानी देहरादून में अगर वैध कालोनी में ऐसा घर आज भी बचा हुआ है तो यह हमारी नाकामी है। नाकामी है उन नेताओं की जो कि वोट मांगते समय बड़ी बड़ी बातें करते हैं, नाकामी है उस सिस्टम की, जिसमें करप्शन आज धर्म सा बन गया है। इसके बाद उस बूढ़ी औरत ने जितनी भी बातें बताई तो मैं अंदर से रो उठा। इस घर में कई दिनों से कई मीडिया वाले आ रहे हैं, फोटो अपने अलग-अलग एंगल से खींच रहे हैं, वीडियो बना रहे हैं लेकिन सहायता के नाम पर आज भी मिला है तो वह मजाक जो समाज ने बनाकर रख दिया है। हम, हमारा मीडिया वहां खबर तलाश रहा है लेकिन वह मुझसे हाथ जोड़कर रोते हुए कहती है कि अगर हमारी यह दशा अखबार या टीवी चैनल पर लोग देखेंगे तो मेरी बेटी का रिश्ता कैसे होगा? हमारी इज्जत तो खिलवाड़ बनकर रह जाएगी। मैंने उन्हें दिलासा देते हुए वैसे ही कुछ हेल्प करने की बात कहते हुए वहां से विदाई ली और मैं पूरे रास्ते अपने देश के महान नेताओं को कोसता हुआ आगे बढ़ गया।
कई दिनों से एक घर से एक खबर आ रही थी। खबर थी कि एक लड़की को घर चलाने के लिए ऑटो रिक्शा चलाने से लोगों ने मना कर दिया। इस पक्षपात भरी खबर को निष्पक्ष अंजाम तक पहुंचाने के लिए मैं उस घर में पहुंच गया। वहां जाने के रास्ते में मेरा स्वागत बदबू से हुआ तो भी आदत के मुताबिक मैं ज्यादा अनकंफर्ट नहीं हुआ। घर में एक जवान बेटी और एक बूढ़ी मां, बेटी के हाथ पीले करने की आस में हर पल दरवाजा ताकती दिखाई देती है। मैं अंदर पहुंचा तो शर्म और लज्जा का लबादा ओढ़े वह बेटी एक टूटे से कमरे में जाकर बैठ जाती है। मैं माताजी को नमस्ते करके वहां बैठ जाता हंू और पूरी बात पता करने की कोशिश करता हंू। माता जी मुझे अपना भगवान मानकर चाय पिलाने का आमंत्रण देती है लेकिन मैं अस्वीकार कर देता हंू।
मैंने परेशानी पूछनी शुरू की तो उन्होंने जो बताया, वह हमारे आज के इस सिस्टम, इस राजनीति और विकसित देश की बातें करने वाले विद्वानों के मुंह पर एक तमाचा है। बूढ़ी औरत ने बताया कि उसका एक बेटा है जो कि हाथ जलने के कारण मजदूरी से भी मजबूर हो चुका है। एक जवान बेटी है जो कि पहले रिक्शा चलाकर कुछ पैसे कमाती थी लेकिन अब जवान हो गई है तो समाज की तीखी निगाहों की वजह से यह भी बंद करना पड़ा। घर में एक किलो आटा तक नहीं है। घर पूरी तरह से जर्जर हो चुका है, इतना बेकार कि अब इसमें रात को लेटते समय सुबह को जिंदा बचने की कोई उम्मीद नहीं की जाती। आंसुओं को पोंछती हुई बताती है कि रात जब घर में आटा नहीं था और पैसे भी नहीं थे तो उन्होंने दस रुपए के सिंघाडे लेकर पेट भरा। राजधानी देहरादून में अगर वैध कालोनी में ऐसा घर आज भी बचा हुआ है तो यह हमारी नाकामी है। नाकामी है उन नेताओं की जो कि वोट मांगते समय बड़ी बड़ी बातें करते हैं, नाकामी है उस सिस्टम की, जिसमें करप्शन आज धर्म सा बन गया है। इसके बाद उस बूढ़ी औरत ने जितनी भी बातें बताई तो मैं अंदर से रो उठा। इस घर में कई दिनों से कई मीडिया वाले आ रहे हैं, फोटो अपने अलग-अलग एंगल से खींच रहे हैं, वीडियो बना रहे हैं लेकिन सहायता के नाम पर आज भी मिला है तो वह मजाक जो समाज ने बनाकर रख दिया है। हम, हमारा मीडिया वहां खबर तलाश रहा है लेकिन वह मुझसे हाथ जोड़कर रोते हुए कहती है कि अगर हमारी यह दशा अखबार या टीवी चैनल पर लोग देखेंगे तो मेरी बेटी का रिश्ता कैसे होगा? हमारी इज्जत तो खिलवाड़ बनकर रह जाएगी। मैंने उन्हें दिलासा देते हुए वैसे ही कुछ हेल्प करने की बात कहते हुए वहां से विदाई ली और मैं पूरे रास्ते अपने देश के महान नेताओं को कोसता हुआ आगे बढ़ गया।
Monday, November 22, 2010
कैसे खत्म होगा भ्रष्टाचार?
हम आए दिन किसी न किसी भ्रष्टाचार के खुलासे की खबरें अखबारों और टीवी चैनलों में देखते आए हैं। आज एक मंत्री ने घूस ली तो कल एक अधिकारी सुविधा शुल्क मांग रहा है। हम जानते हुए भी इसका शिकार हो रहे हैं। पैसे से पूरी दुनिया को खरीदने और बेचने का सपना देखने वाले लोग तो अपने ईमान तक की खरीद फरोख्त कर रहे हैं लेकिन अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस घूसखोरी और भ्रष्टाचार से हमें कैसे निजात मिल सकती है? गहराई से देखा जाए तो इसका जवाब भी आपके आसपास ही है।
घूसखोरी और भ्रष्टाचार से निपटने के लिए हर किसी के अपने विचार हैं. सीबीएसई ने अपने स्टूडेंट्स को जागरुक करने के लिए एक पूरा सप्ताह ही इसके नाम कर दिया। बाबा रामदेव का मत है कि 500 और एक हजार के नोट बंद कर दिए जाएं, भ्रष्टाचार खुद खत्म हो जाएगा। इन सभी मतों के बीच देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के मत से मैं सहमत हंू। देहरादून में एक कार्यक्रम में पहुंचे मिसाइल मैन ने बच्चों के चंचल मन में जो विचार भरा, वह वाकई इससे मुक्ति का एक टॉनिक साबित हो सकता है। डॉ. कलाम का कहना है कि, 'इसे खत्म करने के लिए हमें अपने घरों से शुरुआत करनी होगी. अगर घर में हमारे मम्मी या पापा घूस का पैसा लेकर आते हैं तो हमें उन्हें रोकना होगा। अगर हमारा बड़ा भाई भ्रष्टाचार के रास्ते पर चल पड़ा है तो हमें लगाम लगाना होगा, क्योंकि यह सभी भ्रष्टाचारी किसी न किसी के बाप, भाई या पति होते हैं। हम पैसे और अपनी ऐशपरस्ती के लालच में यह भूल जाते हैं कि हमारा अपना जो अपराध कर रहा है, वह कितना घातक है. चाचा कलाम ने मासूम बच्चों के मानस पटल पर भ्रष्टाचार खत्म करने की जो तरीका फिट किया है, अगर हम सभी अपने बच्चों के दिमाग में यह बात डाल दें तो हमारा भविष्य इससे सुरक्षित हो सकता है। हम खुद इस भ्रष्टाचार को रोकते हुए अपने बच्चे के दिमाग में भी यह बात डाल दें कि इसका नतीजा जनता और देश के लिए कितना खतरनाक हो सकता है। हम ऐसाा करेंगे तो एक दिन गांधी जी का सपना जरूर साकार होगा। हमारे नेता, हमारे अधिकारी, हमारे क्लर्क सबको अगर उनके बच्चे इस कृत्य से रोकेंगे तो क्या वह नहीं रुकेंगे?
घूसखोरी और भ्रष्टाचार से निपटने के लिए हर किसी के अपने विचार हैं. सीबीएसई ने अपने स्टूडेंट्स को जागरुक करने के लिए एक पूरा सप्ताह ही इसके नाम कर दिया। बाबा रामदेव का मत है कि 500 और एक हजार के नोट बंद कर दिए जाएं, भ्रष्टाचार खुद खत्म हो जाएगा। इन सभी मतों के बीच देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के मत से मैं सहमत हंू। देहरादून में एक कार्यक्रम में पहुंचे मिसाइल मैन ने बच्चों के चंचल मन में जो विचार भरा, वह वाकई इससे मुक्ति का एक टॉनिक साबित हो सकता है। डॉ. कलाम का कहना है कि, 'इसे खत्म करने के लिए हमें अपने घरों से शुरुआत करनी होगी. अगर घर में हमारे मम्मी या पापा घूस का पैसा लेकर आते हैं तो हमें उन्हें रोकना होगा। अगर हमारा बड़ा भाई भ्रष्टाचार के रास्ते पर चल पड़ा है तो हमें लगाम लगाना होगा, क्योंकि यह सभी भ्रष्टाचारी किसी न किसी के बाप, भाई या पति होते हैं। हम पैसे और अपनी ऐशपरस्ती के लालच में यह भूल जाते हैं कि हमारा अपना जो अपराध कर रहा है, वह कितना घातक है. चाचा कलाम ने मासूम बच्चों के मानस पटल पर भ्रष्टाचार खत्म करने की जो तरीका फिट किया है, अगर हम सभी अपने बच्चों के दिमाग में यह बात डाल दें तो हमारा भविष्य इससे सुरक्षित हो सकता है। हम खुद इस भ्रष्टाचार को रोकते हुए अपने बच्चे के दिमाग में भी यह बात डाल दें कि इसका नतीजा जनता और देश के लिए कितना खतरनाक हो सकता है। हम ऐसाा करेंगे तो एक दिन गांधी जी का सपना जरूर साकार होगा। हमारे नेता, हमारे अधिकारी, हमारे क्लर्क सबको अगर उनके बच्चे इस कृत्य से रोकेंगे तो क्या वह नहीं रुकेंगे?
Friday, November 19, 2010
बेटे को जिंदगी दें...
बेटे को जिंदगी दें, मौत नहीं। यातायात पुलिस का यह संदेश हम आज भी बेहद हल्के अंदाज में लेते हैं। हमारे बेटे की बाइक लेने की जिद को हम इसलिए पूरा कर देते हैं, क्योंकि वह हमारा लाडला है। हमने कभी यह नहीं सोचा कि बेटे की जिद पूरी करने की हमारी यह तमन्ना हमारी जिंदगी में भी कितना अंधेरा ला सकती है। आज के दिखावे के युग में हम बेशक अपनी युवा पीढ़ी से कदम से कदम मिलाकर चलना चाहते हैं लेकिन हमारी एक गलती हमारे बच्चे की जान की दुश्मन बन सकती है.
बात कुछ दिन पहले की है। देहरादून के एक परिवार के इकलौते चिराग ने कॉलेज में एडमिशन लेने के साथ ही बाइक खरीदने की जिद की। पिता ने भी साथियों के सामने बेटे की पोजिशन मजबूत बनाने के लिए झट से बाइक दिला दी। कुछ दिनों बाद पता चला कि बेटे का कॉलेज जाते हुए भयंकर एक्सीडेंट हो गया है। इस एक्सीडेंट ने इस घर का इकलौता चिराग हमेशा के लिए छीनकर इनकी जिंदगी में अंधेरे भर दिए। कल तक जिस लाडले को देखकर बाप का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था, मां का कलेजा राहत महसूस करता था, आज वही बेबस थे। अपने दिल का टुकड़ा, अपना बेटा खो देने के बाद इस परिवार ने दूसरे परिवारों के वारिस बचाने का बीड़ा उठाया। शहर में एक प्रेस कांफ्रेंस में इस माता और पिता ने सभी पैरेंट्स से अपील की कि वह अपने बच्चों को जितना हो सके बाइक से दूर ही रखें। उन्होंने सबसे अनुरोध करते हुए बताया कि जिस तरह से अपनी लापरवाही की वजह से वह अपने बेटे को खो चुके हैं, वह नहीं चाहते कि दूसरे परिवारों को भी यह दंश झेलना पड़े।
इस परिवार के इस कदम की मैं दिल से सराहना करता हंू। आखिर हम क्यों भूल जाते हैं कि जवानी के बेलौस जोश में हम अपने लाडलों को हाई स्पीड बाइक्स दिला देते हैं। बेटा बाइक दौड़ाता है और खुद तो दुनिया से विदा हो जाता है लेकिन पीछे छोड़ जाता है कुछ जख्म, कुछ अंधेरे जो चाहकर भी नहीं भरे जा सकते। मेरी सभी ऐसे माता-पिता से इस मंच के माध्यम से अपील है कि वह 'बेटे को जिंदगी दें बाइक नहींÓ।
बात कुछ दिन पहले की है। देहरादून के एक परिवार के इकलौते चिराग ने कॉलेज में एडमिशन लेने के साथ ही बाइक खरीदने की जिद की। पिता ने भी साथियों के सामने बेटे की पोजिशन मजबूत बनाने के लिए झट से बाइक दिला दी। कुछ दिनों बाद पता चला कि बेटे का कॉलेज जाते हुए भयंकर एक्सीडेंट हो गया है। इस एक्सीडेंट ने इस घर का इकलौता चिराग हमेशा के लिए छीनकर इनकी जिंदगी में अंधेरे भर दिए। कल तक जिस लाडले को देखकर बाप का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था, मां का कलेजा राहत महसूस करता था, आज वही बेबस थे। अपने दिल का टुकड़ा, अपना बेटा खो देने के बाद इस परिवार ने दूसरे परिवारों के वारिस बचाने का बीड़ा उठाया। शहर में एक प्रेस कांफ्रेंस में इस माता और पिता ने सभी पैरेंट्स से अपील की कि वह अपने बच्चों को जितना हो सके बाइक से दूर ही रखें। उन्होंने सबसे अनुरोध करते हुए बताया कि जिस तरह से अपनी लापरवाही की वजह से वह अपने बेटे को खो चुके हैं, वह नहीं चाहते कि दूसरे परिवारों को भी यह दंश झेलना पड़े।
इस परिवार के इस कदम की मैं दिल से सराहना करता हंू। आखिर हम क्यों भूल जाते हैं कि जवानी के बेलौस जोश में हम अपने लाडलों को हाई स्पीड बाइक्स दिला देते हैं। बेटा बाइक दौड़ाता है और खुद तो दुनिया से विदा हो जाता है लेकिन पीछे छोड़ जाता है कुछ जख्म, कुछ अंधेरे जो चाहकर भी नहीं भरे जा सकते। मेरी सभी ऐसे माता-पिता से इस मंच के माध्यम से अपील है कि वह 'बेटे को जिंदगी दें बाइक नहींÓ।
Tuesday, November 16, 2010
राखी निर्दोष है !
राखी भड़कीले कपड़े पहनती है। वो सबको एक ही नजर से देखती है। वो नजर जो हर मर्द को बुरी लगे। राखी का लहजा बेहद तल्ख है, इतना तल्ख की उसके शब्द कानों में कड़वाहट भर दें। राखी हाल में ही एक मर्द की मौत की वजह बनी। राखी बोलती है तो टीवी देखने वालों के हाथ रिमोट पर हरकत करना बंद कर देते हैं। मन गालियां देता है, कोसता है लेकिन सब उसे ही देखते हैं। हर किसी की जुबान पर राखी का नाम अपशब्दों के साथ ही आता है। मैं आज कह रहा हंू कि राखी निर्दोष है।
एक छोटे से घर और फैमिली में पैदा हुई राखी, बदनाम राखी नहीं थी। वो भी पढ़ लिखकर आगे बढऩा चाहती थी। कुछ बनना चाहती थी। लेकिन हमारा समाज, इस समाज ने ही तो उसे इस मुकाम तक पहुंचा दिया है। राखी को दसवीं के बाद पढऩे से रोकने की नाकाम कोशिशें की गई। उसके मन में दुनिया में अपना नाम कमाने का जुनून सवार था तो वह आगे बढऩे के लिए नित नए प्रयास करती रही। राखी ने शुरुआत की मिक्का के चुंबन से। मिक्का का एक चुंबन ने राखी को रातोंरात चमक धमक की दुनिया की मल्लिका बना दिया। विवादों से सुर्खियों में आने के बाद अगर कामयाबी जारी रखना है तो विवाद लगातार जारी रखने होंगे। कभी शरीफ तरीकों से कामयाबी हासिल करने की तमन्ना रखने वाली राखी को समाज ने इतना दुत्कारा कि वो विवादों की राह पर निकल पड़ी। इसमें राखी की गलती क्या है? हम राखी को हमेशा से ही गलत मानते हैं लेकिन अगर वो इंडिया की लड़कियों की आदर्श बन रही है तो इसमें बुरी बात नहीं है। आखिर ऊपर से बुरी दिखने वाली राखी अंदर से इतनी बुरी भी नहीं है। भले ही वह गलत राह पर चलकर कामयाब हुई हो लेकिन इसके पीछे उसका हार्ड वर्क और हाई पैशन भी रहा है। अपने टारगेट को लेकर उसकी एकाग्रता भी कम नहीं है। यह बात अलग है कि वह विवाह को मजाक मानती है लेकिन मर्दों की दुनिया में उसे जिस तरह का तिरस्कार मिला है, वह अगर औरतों की दुनिया किसी मर्द को मिल जाए तो वह भी ऐसा ही बन जाएगा। सामाजिक प्राणी होने के नाते मैं राखी के गलत व्यवहार का विरोध करते हुए उसकी अच्छाईयों की हिमायत कर रहा हंू।
अब गौर करते हैं राखी के लगातार इस परफॉर्मेंस पर। राखी को बेबाक और बदतमीज राखी बनाने वाले कौन हैं? यह सवाल आपने शायद कभी नहीं सोचा होगा। मैं बताता हंू। जब राखी मिक्का विवाद हुआ तो इसे हवा देने वाला था लोकतंत्र का चौथा स्तंभ। इस स्तंभ ने मामूली सी राखी को इतना सहारा दिया कि वह आगे बढऩे को बेताब हो गई। टेलीविजन की दुनिया की टीआरपी मेकर्स की लिस्ट में आज राखी का नाम सबसे ऊपर इसलिए है, क्योंकि लोग उसे देखना चाहते हैं और टीवी चैनल उन्हें खूब दिखाते हैं। राखी कब किसके बारे में कुछ बोले और न्यूज चैनलों को मसाला मिले। राखी को लेकर रियलिटी शोज बनाना आम सा हो गया है। एक चैनल तो जैसे राखी के ही नाम से अपनी रोटी जुटा रहा है। अब चैनल अपनी टीआरपी बढ़वाने को राखी से ऊल जुलूल हरकतें करवाता है तो इसमें किसकी गलती है? ऐसे तमाम सवाल हैं जो राखी की बुराईयों के लिए जिम्मेदार हैं।
एक छोटे से घर और फैमिली में पैदा हुई राखी, बदनाम राखी नहीं थी। वो भी पढ़ लिखकर आगे बढऩा चाहती थी। कुछ बनना चाहती थी। लेकिन हमारा समाज, इस समाज ने ही तो उसे इस मुकाम तक पहुंचा दिया है। राखी को दसवीं के बाद पढऩे से रोकने की नाकाम कोशिशें की गई। उसके मन में दुनिया में अपना नाम कमाने का जुनून सवार था तो वह आगे बढऩे के लिए नित नए प्रयास करती रही। राखी ने शुरुआत की मिक्का के चुंबन से। मिक्का का एक चुंबन ने राखी को रातोंरात चमक धमक की दुनिया की मल्लिका बना दिया। विवादों से सुर्खियों में आने के बाद अगर कामयाबी जारी रखना है तो विवाद लगातार जारी रखने होंगे। कभी शरीफ तरीकों से कामयाबी हासिल करने की तमन्ना रखने वाली राखी को समाज ने इतना दुत्कारा कि वो विवादों की राह पर निकल पड़ी। इसमें राखी की गलती क्या है? हम राखी को हमेशा से ही गलत मानते हैं लेकिन अगर वो इंडिया की लड़कियों की आदर्श बन रही है तो इसमें बुरी बात नहीं है। आखिर ऊपर से बुरी दिखने वाली राखी अंदर से इतनी बुरी भी नहीं है। भले ही वह गलत राह पर चलकर कामयाब हुई हो लेकिन इसके पीछे उसका हार्ड वर्क और हाई पैशन भी रहा है। अपने टारगेट को लेकर उसकी एकाग्रता भी कम नहीं है। यह बात अलग है कि वह विवाह को मजाक मानती है लेकिन मर्दों की दुनिया में उसे जिस तरह का तिरस्कार मिला है, वह अगर औरतों की दुनिया किसी मर्द को मिल जाए तो वह भी ऐसा ही बन जाएगा। सामाजिक प्राणी होने के नाते मैं राखी के गलत व्यवहार का विरोध करते हुए उसकी अच्छाईयों की हिमायत कर रहा हंू।
अब गौर करते हैं राखी के लगातार इस परफॉर्मेंस पर। राखी को बेबाक और बदतमीज राखी बनाने वाले कौन हैं? यह सवाल आपने शायद कभी नहीं सोचा होगा। मैं बताता हंू। जब राखी मिक्का विवाद हुआ तो इसे हवा देने वाला था लोकतंत्र का चौथा स्तंभ। इस स्तंभ ने मामूली सी राखी को इतना सहारा दिया कि वह आगे बढऩे को बेताब हो गई। टेलीविजन की दुनिया की टीआरपी मेकर्स की लिस्ट में आज राखी का नाम सबसे ऊपर इसलिए है, क्योंकि लोग उसे देखना चाहते हैं और टीवी चैनल उन्हें खूब दिखाते हैं। राखी कब किसके बारे में कुछ बोले और न्यूज चैनलों को मसाला मिले। राखी को लेकर रियलिटी शोज बनाना आम सा हो गया है। एक चैनल तो जैसे राखी के ही नाम से अपनी रोटी जुटा रहा है। अब चैनल अपनी टीआरपी बढ़वाने को राखी से ऊल जुलूल हरकतें करवाता है तो इसमें किसकी गलती है? ऐसे तमाम सवाल हैं जो राखी की बुराईयों के लिए जिम्मेदार हैं।
Friday, November 12, 2010
लो जी आपकी सेवा में हम हाजिर हैं
‘आपकी दुआओं का ऐसा ये असर है, आप ही का है सबकुछ आपकी नज़र है’
कई दिनों की थका देने वाली बीमारी। बीमारी के दौरान के कई अलग अनुभव लेकर एक बार फिर हम आपके सामने हाजिर हैं। हालांकि मेरे परम मित्रों ने मेरे पिछले लेख पर कड़ा ऐतराज इसलिए जताया था क्योंकि वह मुझसे ऐसी अपेक्षा नहीं करते कि मैं इतनी जल्दी उन्हें छोडक़र चला जाऊं। लेख पब्लिश होने के दिनभर कई फोन आए और सबने दुआएं की। लेख की प्रतिक्रियाएं भी बता रही हैं कि दुनिया में दूसरों के लिए दुआ करने वालों की आज भी कोई कमीं नहीं है।
आपकी दुआओं से डेंगू के डंक से मैं बच निकलने में कामयाब रहा लेकिन कई दिनों का वायरल मेरा पीछा छोडऩे को तैयार नहीं है। मैं अभी भी दवाई ले रहा हंू लेकिन आज काम पर लौटने से एक अलग सी ऊर्जा महसूस कर रहा हंू।
बीमारी के दौरान डॉक्टरी सलाह थी कि मैं खूब पपीता, सेब और अनार का सेवन करूं ताकि जल्द से जल्द मेरी अंदर की कमजोरी दूर हो सके। पपीता, जुबान पर नाम आते ही पानी आना लाजिमी है लेकिन इस पपीते की हालत आज किसी से छिपी नहीं है। गांव में रहते हुए घर के पपीते और बाजार में बिक रहे इस पपीते में जमीन आसमान का फर्क इसलिए है, क्योंकि यह दवाईयों के सहारे तैयार किया गया है। बाजार से मेरी पतिव्रता पत्नी कई किलो पपीता ले आई। पहले तो मुझे इस बात की दिमागी शांति हुई कि पपीता खाकर जल्द खून में प्लेटलेट््स बढ़ेेंगे क्योंकि इस वायरल ने मेरे प्लेटलेट््स की संख्या कुछ कम कर दी थी। लेकिन जब खाना शुरू किया तो चिंता यह होने लगी कि कहीं यह पपीता मेरी जान का दुश्मन न बन जाए। पपीता खाने में जैसा स्वादहीन देखने में उतना ही सुुंदर। सबसे बड़ी बात की खाने पर साफ लग रहा था कि पपीते को जबर्दस्ती पकाया गया है। अब इस जबर्दस्ती पकाने का मतलब साफ है कि दवाओं या इंजेक्शन से यह काम किया जाता है। वास्तव में इस कई दिनों की छुट्टी के दौरान मैंने पांच किलो से ज्यादा पपीता खाया लेकिन मुझे नतीजा सिफर ही लगा।
मुझे इस दौरान फलों से खूब ही रूबरू होने का मौका मिला। आम दिनों में तो हम स्वस्थ अवस्था में इन बातों पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं देते होंगे लेकिन जब सेब मेरे सामने आया तो उसकी चमक गजब थी। आमतौर पर सेब को प्रकृति का एक नायाब तोहफा माना जाता है। लेकिन यह सेब इसलिए ज्यादा चमकदार था क्योंकि इसे भी जो दिखता है वही बिकता है कि तर्ज पर जबर्दस्ती चमकीला बनाया गया था। खैर सेब भी मैने जैसे तैसे खा ही लिए, रिजल्ट यहां भी शून्य ही प्रतीत हुआ।
डॉक्टरी सलाह थी कि मैं इस दौरान जमकर हरी सब्जियों का सूप का सेवन करूं, सो मैंने किया। लौकी की सब्जी बनाई तो देखने में बदसूरत लग रही लौकी वास्तव में पेस्टीसाइड्स की उपज दिख रही थी। बताया जाता है कि लौकी में इस कदर इंजेक्शन का यूज होता है कि यह एक रात में ही फुल साइज पर पहुंच जाती है। इससे मुझे और चिंता हुई, कहीं मैं यह जहरीली लौकी तो नहीं खा रहा हंू। बैंगन खाया तो वहां भी पेस्टीसाइड्स, गोभी के तो कहने ही क्या।
यह पपीता, सेब, बैंगन लौकी का जिक्र करने का मकसद यह है कि हमारे जीवन में मिलावट और इस मिलावट का जहर कितनी तेजी से हमारी नसों में घुल रहा है। आपकी दुआएं साथ रही तो मैं जल्द ही ठीक हो जाऊंगा लेकिन इस मिलावट को कौन रोकेगा? हम लाख कोशिश करते हैं कि इस मिलावट से बच सकें लेकिन यह काम इतना आसान नहीं है।
Monday, November 8, 2010
दुआ करना भाई, विदा हो रहा हंू...
आज सुबह ऑफिस पहुंचा तो मित्रों से हाथ मिलाने पर पता चला कि मुझे फीवर है। कई दिनों से चल रहे इस फीवर के बीच मुझे कुछ डेंगू जैसे सिम्पटंप्स लगे तो मैंने झट से अपने डॉक्टर को फोन मिलाया। पूरी व्यथा बताई तो डॉक्टर ने तुरंत हास्पिटल आने की सलाह दे डाली। हॉस्पिटल पहुंचने पर डॉक्टर ने हाथ पकड़ते ही डेंगू जैसे सिम्पटंप्स की पुष्टि कर दी और ब्लड टेस्ट की सलाह भी। अब मैं चिंतित हंू कि कहीं डेंगू न हो गया हो। खैर होनी को कोई नहीं टाल सकता। मैं आज जो ब्लॉग लिख रहा हंू, वह इसलिए ताकि कल हो न हो। वास्तव में मनुष्य एक पानी का बुलबुला ही है, कब, कहां क्या हो जाए कहना मुश्किल है। अभी मेरी रिपोर्ट नहीं आई है लेकिन 60 प्रतिशत उम्मीद डेंगू की ही की जा रही है। ऐसे में डॉक्टरी सलाह है कि मैं कुछ दिन घर पर आराम करूं, दिमाग को पूरा आराम दंू। जाहिर तौर पर ऑफिस से छुट्टी भी लेनी होगी। छुट्टी फिलहाल ले ली है, वापस लौटंूगा तो कुछ कहने के काबिल रहंूगा तो जरूर हाजिर हो जाऊंगा। फिलहाल तो आपकी दुआओं की आकांक्षा के साथ मैं कुछ दिन के लिए अपनी ब्लॉगिंग को विराम दे रहा हंू। इन चंद अशआर के साथ....
दुआ करना भाई, विदा हो रहा हंू
रही जिंदगी तो, मैं आकर मिलंूगा।
अगर मर गया तो, दुआ करते रहना
के आंसू बहाने की, कोशिश न करना।।
जय हिंद....
दुआ करना भाई, विदा हो रहा हंू
रही जिंदगी तो, मैं आकर मिलंूगा।
अगर मर गया तो, दुआ करते रहना
के आंसू बहाने की, कोशिश न करना।।
जय हिंद....
Saturday, November 6, 2010
किस काम के ऐसे त्यौहार???

फेस्टिवल ऑफ लाइट का खुमार अभी हमारे दिलों-दिमाग पर खूब ही छाया हुआ है। हमारे घर के आंगन पटाखों के टुकड़ों से अभी भी भरे हुए हैं। मेरे पड़ोस में रोजगार तलाशने के लिए आए एक शख्स की प्लास्टिक की तिरपाल की बनी झोंपड़ी पर एक रॉकेट गिरने की वजह से आग लग गई। उस वक्त पति काम से बाहर गया हुआ था और झोंपड़ी में मां अपने एक नन्हें बच्चे को सुला रही थी। उस बच्चे को जो कि अभी इस दुनिया की अमीरी-गरीबी से अंजान है, उस मासूम को जो शायद कल रोटी के जुगाड़ के लिए अपने बाप की तरह संघर्ष करेगा। दूसरा बच्चा अपनी झोंपड़ी के सामने रहने वाले एक अमीर घराने की दीवाली को अपनी आंखों से देखकर खुशी का अहसास कर रहा था। मैंने शाम को आग लगने के बाद हुआ हो-हल्ला सुना तो घर से बाहर आ गया। देखा एक अबला सी नारी अपनी झोंपडी की आग बुझाने के लिए पानी की बाल्टी डाल रही थी। हालांकि आग कम ही लगी थी, सो दो तीन पानी की बाल्टी से ही काबू में आ गई। इधर पेट की आग बुझाने के लिए रोटी का जुगाड़ करने गए पति और घर की आग बुझाने के लिए पत्नी की जद्दोजहद जारी थी तो उधर सामने वाले घर में पटाखों की आवाज लगातार बढ़ती जा रही थी। मैंने वहां पहुंचकर जितनी हो सकी, हेल्प की लेकिन अमीर लोग पटाखों की खुमारी में इस कदर बिजी थे कि कई घंटे तक उन्हें इसकी भनक तक नहीं लगी। यह देखकर मेरे मन को आघात लगा। लगा कि ऐसे फेस्टिवल किस काम के जिससे हम अपने आंगन में रोशनी करने के लिए दूसरों के घर जलाएं। पटाखे इतने जलाएं कि हमारे पड़ोस में रहने वाला मध्यम श्रेणी का परिवार शर्मा जाए क्योंकि उसका बजट इतना नहीं है कि वह इतने महंगे और इतने सारे पटाखे खरीद सके। मिठाईयां बांटना सही है लेकिन इसका दायरा अगर सिर्फ अपने अमीर दोस्तों तक ही हो तो क्या फायदा? मैं ऐसे ही चुभते हुए और उत्तरहीन सवालों के साथ अपने घर लौट आया।
Thursday, November 4, 2010
अब कभी वह कोख हरी न होगी
वह दोनों प्रोफेशनल हैं। पंद्रह साल की प्रोफेशनल लाइफ में उन्होंने देहरादून में एक बड़ा सा मकान बना लिया है। इतना बड़ा की जब खाली सा लगने लगा तो दो-चार किराएदार रख लिए। पूरा परिवार कहीं और रहता है, इस हवेली रूपी घर में केवल पति-पत्नी ही रहते हैं। जरूरत है तो बस एक औलाद की जो शाम को थककर घर आने पर प्यार से पापा या मम्मी पुकार सके। सूनापन है तो उस लक्ष्मी का जो कि हर पल मम्मी और पापा के साथ ककहरा लगा सके। वजह खुद उनका प्रोफेशनलिज्म।
कल शाम को थोड़ी फुरसत मिली तो मैं इन जनाब के पास बैठ गया। कई सालों से मन में चल रहे सवाल को आखिरकार मैं कब तक रोक पाता। मैंने पूछ ही लिया घर के सूनेपन की वजह। फिर क्या था, उन्होंने जो बताया वह आज के प्रोफेशनल लोगों के लिए एक सबक है। पंद्रह सालों पुरानी बात है जब इन जनाब का विवाह एक सुंदर कन्या के साथ हुआ था। तब कॅरियर की शुरुआत ही थी। पत्नी ने अभी ग्रेजुएशन ही किया था तो उन्हें भी कॅरियर बनाने की चिंता थी। शादी के बाद दोनों ने पहले अपना कॅरियर बनाने की ठानी। इस बीच दो बार गर्भधारण हुआ तो वह कॅरियर की राह में बाधा लगा। गर्भपात करा दिया। उनकी यह भूल आज तक उन्हें सालती है। पति एक बड़े कॉलेज में लेक्चरर बन गए तो पत्नी ने भी पीएचडी करके एक बड़े संस्थान में बतौर प्रोफेसर नौकरी पा ली। अब दोनों को सुध आई मां-बाप बनने की लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। लाख कोशिश के बाद भी वह मां का सुख नहीं पा सकी। और अंदर तक पूछने पर बताया गया कि कॅरियर बनाने के लिए दोनो इस कदर बिजी हो गए कि बच्चे की याद ही नहीं आई। अब यह दोनों अकेलेपन की जिंदगी जी रहे हैं। हर घर में किलकारी गंूजती सुनते हैं तो यह दर्द और बढ़ जाता है लेकिन अब क्या होत है जब चिडिय़ा चुग गई खेत?
समझ नहीं आता कि जब हमारे लिए कॅरियर ही पहली प्राथमिकता होता है तो हम विवाह बंधन में बंधते ही क्यों हैं? अगर बंध जाते हैं तो आप प्रकृति के खिलाफ जंग करके कब तक खुद को मां-बाप बनने से रोक सकते हैं? अगर रोक लें तो अक्सर ऐसा होता है जैसा इस कपल के साथ हुआ है। इसलिए जरूरी है कि समय पर शादी होने के बाद प्रोफेशनलिज्म के बजाए समय पर बच्चे भी हो जाने चाहिएं। हमारी युवा पीढ़ी में प्रोफेशनलिज्म का यह ट्रेंड तेजी से पनप रहा है जो कि भविष्य के भारत के लिए एक बड़ा खतरा हो सकता है।
दीवाली की हार्दिक शुभकामनाओं सहित....
आफताब अजमत
कल शाम को थोड़ी फुरसत मिली तो मैं इन जनाब के पास बैठ गया। कई सालों से मन में चल रहे सवाल को आखिरकार मैं कब तक रोक पाता। मैंने पूछ ही लिया घर के सूनेपन की वजह। फिर क्या था, उन्होंने जो बताया वह आज के प्रोफेशनल लोगों के लिए एक सबक है। पंद्रह सालों पुरानी बात है जब इन जनाब का विवाह एक सुंदर कन्या के साथ हुआ था। तब कॅरियर की शुरुआत ही थी। पत्नी ने अभी ग्रेजुएशन ही किया था तो उन्हें भी कॅरियर बनाने की चिंता थी। शादी के बाद दोनों ने पहले अपना कॅरियर बनाने की ठानी। इस बीच दो बार गर्भधारण हुआ तो वह कॅरियर की राह में बाधा लगा। गर्भपात करा दिया। उनकी यह भूल आज तक उन्हें सालती है। पति एक बड़े कॉलेज में लेक्चरर बन गए तो पत्नी ने भी पीएचडी करके एक बड़े संस्थान में बतौर प्रोफेसर नौकरी पा ली। अब दोनों को सुध आई मां-बाप बनने की लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। लाख कोशिश के बाद भी वह मां का सुख नहीं पा सकी। और अंदर तक पूछने पर बताया गया कि कॅरियर बनाने के लिए दोनो इस कदर बिजी हो गए कि बच्चे की याद ही नहीं आई। अब यह दोनों अकेलेपन की जिंदगी जी रहे हैं। हर घर में किलकारी गंूजती सुनते हैं तो यह दर्द और बढ़ जाता है लेकिन अब क्या होत है जब चिडिय़ा चुग गई खेत?
समझ नहीं आता कि जब हमारे लिए कॅरियर ही पहली प्राथमिकता होता है तो हम विवाह बंधन में बंधते ही क्यों हैं? अगर बंध जाते हैं तो आप प्रकृति के खिलाफ जंग करके कब तक खुद को मां-बाप बनने से रोक सकते हैं? अगर रोक लें तो अक्सर ऐसा होता है जैसा इस कपल के साथ हुआ है। इसलिए जरूरी है कि समय पर शादी होने के बाद प्रोफेशनलिज्म के बजाए समय पर बच्चे भी हो जाने चाहिएं। हमारी युवा पीढ़ी में प्रोफेशनलिज्म का यह ट्रेंड तेजी से पनप रहा है जो कि भविष्य के भारत के लिए एक बड़ा खतरा हो सकता है।
दीवाली की हार्दिक शुभकामनाओं सहित....
आफताब अजमत
Wednesday, November 3, 2010
वाह री कम्यूनिटी साइट
मेरे एक साथी। ऑफिस में एंट्री के साथ ही उनकी अंगुलियां पहुंच जाती हैं इंटरनेट पर। इसके बाद शुरू होता हैउनका फेसबुकिया कलाम। उनकी एक ऐसी कम्यूनिटी है, जिसमें वह खो जाना चाहते हैं। फेसबुक का दीवानापनइस कदर कि सुबह की मीटिंग से पहले और मीटिंग के बाद वह पूरी अपडेट देखकर ही फील्ड में निकलते हैं। चंूकिकलीग हैं, इसलिए उनका नाम नहीं बता सकता लेकिन उनके दीवानेपन के चर्चे आम हैं। देहरादून से लेकर दिल्लीतक के उनके मित्र भी उनके इस दीवानेपन को सलाम करते हैं। देखने पर लगता है, जैसे उनकी वॉल पोस्ट काउनकी तरह उनके फेसबुकिया मित्र भी बेसब्री से इंतजार करते हैं। ऑफिस से उनका वास्ता खबरों और कभीकभार हम जैसों के हालचाल लेने तक ही दिखाई देता है। दरअसल यह साथी तो महज एक नजीर हैं, हमारे युवाजितनी तेजी से कम्यूनिटी साइट की बनी हुई कम्यूनिटी में खो रहे हैं, वह एक बड़ा बदलाव है। मैं फेसबुकिंग याऑर्कुटिंग की बुराई कतई नहीं कर रहा हंू, लेकिन इन पर मिलने वाली सुविधाएं बरबस ही हर किसी को अपनीओर खींच लेती हैं। खासतौर से नए मित्र बनाने के शौकीन लोगों के लिए तो यहां अपार संभावनाएं हैं। हालांकि मैंभी फेसबुक और आर्कुट पर उपस्थित हंू लेकिन आज तक मैं इसे समझने की कोशिशों में ही लगा हुआ हंू।फेसबुक खोलता हंू, अपना अकाउंट में अपना हंसता हुआ फोटो देखता हंू. इससे ज्यादा समझने की बस कोशिशकरता हंू। अपने साथी की देखादेखी कई बार कोशिश की लेकिन न जाने क्यों अभी तक मैं इस फेसबुकिया बुखारसे दूर ही हंू। मेरे ख्याल से हमें एक बात ये भी सोचनी चाहिए कि इस साइट पर कई प्रोफाइल ऐसे भी होते होंगे जोकि पूरी तरह से फर्जी होंगे। इन फर्जी प्रोफाइल से दोस्ती आपको महंगी भी पड़ सकती है। अब मेरे यह काबिलसाथी इस बाबत कितने जागरुक हैं, यह तो मुझे पता नहीं है लेकिन हमें इंटरनेट के समाज के साथ ही अपनेसमाज को भी देखना चाहिए। इस समाज की बहुत सी बुराईयां हैं जो हमें दूर करनी होंगी। युवा होने के नाते बहुतसे बदलाव करने होंगे। तभी जाकर हम एक अच्छे और सच्चे समाज को देख और जी सकते हैं।
सभी पाठकों को दीवाली और धनतेरस की हार्दिक बधाई...
सभी पाठकों को दीवाली और धनतेरस की हार्दिक बधाई...
Tuesday, November 2, 2010
पुरुष सिर्फ रसिक होता है !
पुरुष को हमेशा रसिक ही माना जाता रहा है। इसकी बानगी इन दिनों देखने को मिल रही है, आमिर खान के टाटा स्काई के एक विज्ञापन में। विज्ञापन में दिखाया गया है कि वह किस तरह एक पुरुष को जबर्दस्ती अपनी मर्जी के कपड़े पहना देते हैं और साथ में कहते हैं कि, 'न तो पान की पीक दिखाई देगी और न ही लिपिस्टिक दा दागÓ। अब इस दाग का अगर ऑपरेशन किया जाए तो कई बातें सामने आती हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि पुरुष सिर्फ दूसरी महिलाओं के प्रति आकर्षित होने और उनके साथ रंगरेलियां मनाने के लिए ही पैदा हुआ है। पुरुष को ऐसे कपड़े पहनने चाहिएं ताकि घर जाने पर उसका रसिकपन बीवी की नजर में न आए। अब यह उन पत्नी प्रेमी पुरुषों के लिए बहुत हर्ट करने वाली बात भी होगी जिनके लिए दफ्तर और घर की दौड़ मुल्ला की दौड़ की माफिक होती है। यह विज्ञापन और भी कई कहानियां अपने साथ लिए चलता है। विज्ञापन का सार है कि आप किसी की जबर्दस्ती अपने ऊपर क्यों ढ़ोंएं लेकिन इसकी सच्चाई तो यही है कि पुरुष ही महिलाओं के प्रति आकर्षण का गुण रखता है। अब यह बात अलग है कि कई घर सिर्फ इसलिए टूट जाते हैं, क्योंकि वहां किसी बाहरी महिला का हस्तक्षेप ज्यादा बढ़ जाता है। महिला अगर अपनी मर्जी से किसी पुरुष को बर्बाद कर दे तो कोई कुछ नहीं कहता लेकिन पुरुष अगर महिला का प्रेमी बन जाए तो आफत। महिलाएं अगर कई पुरुषों के संपर्क में रहें तो कोई बात नहीं लेकिन पुरुष को 'दिल मांगे मोरÓ फिल्म में कई महिलाओं के साथ ही दिखाया जाता है। मैं हालांकि महिलाओं की आलोचना नहीं कर रहा हंू, लेकिन यह बात कहना चाहता हंू कि हमेशा पुरुष ही रसिक नहीं होता है। महिलाएं भी अब किसी से कम नहीं हैं।
Saturday, October 30, 2010
इस राह में कोई रोड़ा नहीं बन सकता
पिछले दिनों की बात है। मैं ऑफिस से काम निपटाने के बाद घर पहुंचा। खाना खाकर अभी आराम की मुद्रा में आया ही था कि फोन की घंटी बज उठी। इस मुद्रा में जाने के समय पर अगर फोन बाधा उत्पन्न करे तो बहुत किलस होती है। खैर मैंने फोन उठाया तो रोने की आवाजें आने लगी। फोन पर आने वाली आवाज मर्दाना थी लेकिन उस आवाज में एक मजबूरी झलक रही थी, कुछ टूटने का अहसास हो रहा था। मैंने हैलो किया तो वह विनय का फोन था। विनय, जो कि एक बेहद चुस्त और जोश से भरा हुआ दिखने वाला युवक। काम में माहिर, किसी कंपनी में बतौर एक्जीक्यूटिव तैनात। सुबह जोश के साथ तो शाम आत्मसंतुष्टि के साथ होती थी। आज ऐसा क्या हुआ कि विनय माजूरी की हालत में पहुंच गया। उसकी गिरती आवाज को अपनी आवाज से सहारा देते हुए मैंने विनय से रोने की वजह पूछी तो वह फफकफफक कर रो पड़ा। विनय ने बताया कि वह एक दूसरी कम्यूनिटी की लड़की से प्रेम करने लगा। प्रेम भी इस कदर परवान चढ़ गया कि वह उसके लिए सबकुछ छोड़ने को तैयार हो गया। ऐसे प्रेमियों की राह में सबसे बड़ा रोड़ा बनते हैं मांबाप। यहां भी ऐसा ही हुआ। विनय के मांबाप ने उसे रोकने की लाख कोशिश की लेकिन समाज की नजरों में कांटों से भरे इस रास्ते पर चलने में उसे जो मजा आ रहा था, उसे एक प्रेमी ही महसूस कर सकता है। मातापिता के बढ़ते विरोध के साथ ही विनय के प्रेम को एक अलग मजबूती मिलती जा रही थी। जब विनय बगावत पर उतर आया तो उसके परिजनों ने एक ऐसा रास्ता अख्तियार किया, जो आज के परिपेक्ष्य में थोड़ा आलोचना भरा हो सकता है। विनय के पिता ने उसे कमरे में बंद कर दिया, विनय ने रोते हुए बताया कि वह पिछले कई दिनों से इस कमरे में बंद होकर रह गया है। मैंने विनय के आंसुओं को रोकने की कोशिश की तो उसने अपनी प्रार्थना रोते हुए मेरे सामने रख दी। विनय चाहता था कि मैं मीडियाकर्मी होने के नाते उसका कोर्ट मैरिज करा दूं और उसे यहां से चलता कर दूं। विनय की नजरों में आसान सा दिखने वाला यह काम इतना आसान नहीं था। पहली बात तो यह कि कमरे से बाहर निकलना मुश्किल, बाहर निकल भी गया तो दिल्ली भेजी जा चुकी प्रेमिका से मिलना मुश्किल, मिल भी गया तो बैंक अकाउंट में एक भी पैसा नहीं। ऐसे में विनय का यह प्यार और भी मुश्किल था। मैंने विनय को थोड़ा सब्र रखने की सलाह दी तो उसे मेरी बातों में नाउम्मीदी नजर आई। मैंने लाख समझाने की कोशिश की लेकिन वह नहीं माना। दो दिन बाद उसके निवास वाले क्षेत्र के थाने में एक एफआईआर दर्ज हुई, जिसमें लिखा था कि उनका बेटा गायब हो गया है। कल तक उसे कमरे में बंद करने वाले मांबाप को आज अपने बेटे के खोने पर बेहद अफसोस हो रहा था। विनय जा चुका था और अपने पीछे छोड़ गया था कुछ दर्द कुछ रंज।
Monday, October 25, 2010
हो सकता है आपको यह अच्छा न लगे
आज मैं जो लिखने जा रहा हूं, हो सकता है कुछ लोगों को पसंद न आए। मैं आजाद देश का आजाद प्राणी हूं तो मुझे भी अपनी बात कहने का हक है। बाबरी मस्जिद मामले में याचिका दायर करने वाले हाशिम अंसारी की भावनाओं की कद्र करते हुए मैं जो लिखने जा रहा हूं, वह कड़वा सच है।
बाबरी मस्जिद विवाद। खौफनाक इंसानी लड़ाई के बाद लंबे सालों तक कानूनी लड़ाई। नतीजा, जमीन का बंटवारा। यह है बाबरी मस्जिद मामले की सच्चाई। मामले में भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग की रिपोर्ट को आधार बनाया गया। सबने इसकी सराहना की लेकिन कई लोगों ने इस पर अपना विरोध भी जताया। खैर, मैं इस रिपोर्ट से व्यक्तिगत रूप से सहमत हूं। जाहिर तौर पर आपके दिमाग में सवाल होगा क्यों, तो आइए मैं आपको बताता हूं।
भारत, वह देश जहां सबसे पहले हिंदू संस्कृति की उत्पत्ति मानी जाती है। वह संस्कृति, जो पूरी दुनिया में सबसे महान संस्कृति इसलिए है क्योंकि इसने हर बार दूसरे धर्मों और संस्कृतियों को अपने अंदर समाहित किया। चूंकि हिंदू संस्कृति की उत्पत्ति यहीं से हुई है तो जाहिरतौर पर यहां की जमीन और जंगल भी इस संस्कृति की ही विरासत है। दूसरी संस्कृतियां और धर्म यहां चलकर आए हैं और हिंदू संस्कृति ने उन्हें पनाह, जंगल और जमीन दी। ऐसे में पहला हक तो हिंदू संस्कृति का ही बनता है। अब मुगलकाल आया तो इसी जमीन पर मस्जिद बना दी गई। इंसान की इंसानियत खत्म हुई तो वह मस्जिद और मंदिर में फेर करने लगे। बात यहां तक पहुंच गई कि मस्जिद को ढ़हा दिया गया। नतीजतन कई सालों तक इंसानियत के बीच खाई बनी रही। अब फैसला आया तो इस पर राजनीति फिर से शुरू हो गई। लेकिन लंबे सालों की कानूनी लड़ाई ने मुस्लिम पक्षकार हाशिम अंसारी को एक सीख दे दी है कि हम सब भारतवासी हैं तो हम क्यों मंदिर मस्जिद की झगड़ों में अपना वक्त, जोश और जवानी ज़ाया कर रहे हैं। मामले की सुनवाई कर रहे जजों की पीठ में शामिल जस्टिस डीवी शर्मा की रिपोर्ट की बात करें तो मस्जिद वाली जगह के पास कई छोटे मंदिर भी थे, जिनमें हिंदू नियमित तौर पर पूजापाठ कर रहे थे। मस्जिद ढ़हाने गए लोगों ने इन मंदिरों को भी नहीं बख्शा। अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि यह मंदिर और मस्जिद विवाद महज हम इंसानों के बीच खाई पैदा कर राजनीति का एक फंडा है। खैर, मेरा तो यह मानना है कि जब मुस्लिम धर्म की उत्पत्ति भारत में हुई ही नहीं तो यह जमीन किसकी है, फैसला आपके हाथ…
बाबरी मस्जिद विवाद। खौफनाक इंसानी लड़ाई के बाद लंबे सालों तक कानूनी लड़ाई। नतीजा, जमीन का बंटवारा। यह है बाबरी मस्जिद मामले की सच्चाई। मामले में भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग की रिपोर्ट को आधार बनाया गया। सबने इसकी सराहना की लेकिन कई लोगों ने इस पर अपना विरोध भी जताया। खैर, मैं इस रिपोर्ट से व्यक्तिगत रूप से सहमत हूं। जाहिर तौर पर आपके दिमाग में सवाल होगा क्यों, तो आइए मैं आपको बताता हूं।
भारत, वह देश जहां सबसे पहले हिंदू संस्कृति की उत्पत्ति मानी जाती है। वह संस्कृति, जो पूरी दुनिया में सबसे महान संस्कृति इसलिए है क्योंकि इसने हर बार दूसरे धर्मों और संस्कृतियों को अपने अंदर समाहित किया। चूंकि हिंदू संस्कृति की उत्पत्ति यहीं से हुई है तो जाहिरतौर पर यहां की जमीन और जंगल भी इस संस्कृति की ही विरासत है। दूसरी संस्कृतियां और धर्म यहां चलकर आए हैं और हिंदू संस्कृति ने उन्हें पनाह, जंगल और जमीन दी। ऐसे में पहला हक तो हिंदू संस्कृति का ही बनता है। अब मुगलकाल आया तो इसी जमीन पर मस्जिद बना दी गई। इंसान की इंसानियत खत्म हुई तो वह मस्जिद और मंदिर में फेर करने लगे। बात यहां तक पहुंच गई कि मस्जिद को ढ़हा दिया गया। नतीजतन कई सालों तक इंसानियत के बीच खाई बनी रही। अब फैसला आया तो इस पर राजनीति फिर से शुरू हो गई। लेकिन लंबे सालों की कानूनी लड़ाई ने मुस्लिम पक्षकार हाशिम अंसारी को एक सीख दे दी है कि हम सब भारतवासी हैं तो हम क्यों मंदिर मस्जिद की झगड़ों में अपना वक्त, जोश और जवानी ज़ाया कर रहे हैं। मामले की सुनवाई कर रहे जजों की पीठ में शामिल जस्टिस डीवी शर्मा की रिपोर्ट की बात करें तो मस्जिद वाली जगह के पास कई छोटे मंदिर भी थे, जिनमें हिंदू नियमित तौर पर पूजापाठ कर रहे थे। मस्जिद ढ़हाने गए लोगों ने इन मंदिरों को भी नहीं बख्शा। अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि यह मंदिर और मस्जिद विवाद महज हम इंसानों के बीच खाई पैदा कर राजनीति का एक फंडा है। खैर, मेरा तो यह मानना है कि जब मुस्लिम धर्म की उत्पत्ति भारत में हुई ही नहीं तो यह जमीन किसकी है, फैसला आपके हाथ…
Saturday, October 23, 2010
यहां एलएलबी पास आइसक्रीम बेचता है
मेरे बचपन के दोस्त संजय के चाचा अशोक कुमार, पढ़ाई एलएलबी, पेशा आइसक्रीम विक्रेता. यह प्रोफाइल है उस शख्स का जो कि एलएलबी करने के बावजूद आज तक आइसक्रीम ही बेचता है। बचपन से ही हम अशोक चाचा की आइसक्रीम खाते हुए बड़े हुए हैं तो आज मैं जो लिखने जा रहा हूं, वह उनके सम्मान में लिख रहा हूं। मैं अपने दोस्त के इस चाचा की पूरी कदर करता हूं। चाचा मुझे भी अपना दूसरा संजय ही मानते हैं। इस बार गांव गया तो उनसे फुर्सत के लम्हों में बात करने का मौका मिल ही गया। मैंने चाचा का अतीत खंगालना शुरू कर दिया। चाचा के चेहरे पर मायूसी छा गई और मन में एक कसक साफ दिखाई देने लगी। चाचा ने बताया कि वह सहारनपुर के जैन कॉलेज से ग्रेजुएशन कर रहे थे। इस दौरान रास्ते में कोर्ट पड़ता था तो एकदो वकीलों के पास भी उनका उठनाबैठना हो गया था। फिर न जाने कब चाचा को भी काला कोट पहनकर कानून का पक्षकार बनने की सूझ गई। ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद चाचा ने झट से एलएलबी में एडमिशन ले लिया। उन दिनों एलएलबी करना हालांकि बहुत बड़ी बात मानी जाती थी लेकिन यह एलएलबी उनके लिए आज तक बेरोजगारी की वजह बनी है। एलएलबी करने के बाद चाचा ने कोर्ट में ट्रेनिंग शुरू की, रजिस्ट्रेशन कराया लेकिन संघर्ष इतना था कि वह वहां टिक नहीं पाए। टिक भी जाते तो पता चला कि कोर्स की पढ़ाई और कोर्ट में कमाई में जमीनआसमान का अंतर होता है। अब चाचा ने तो सिर्फ किताबों में ही कानून पढ़ा था, प्रयोगात्मक तौर पर तो वह इसकी एबीसीडी भी नहीं जानते थे। काफी कोशिश की, कई वकीलों के चैंबर में हर रोज जूते घिसे लेकिन नतीजा आज भी बेरोजगारी। दरअसल चाचा जैसे ही हजारोंलाखों लोग इस देश में आज भी ग्रेजुएशन और पोस्टग्रेजुएशन कोर्स करने के बावजूद बेरोजगार हैं। इस सवाल को गंभीरता पूर्वक सोचा जाए तो एक सवाल खुद ही आ खड़ा होता है कि आखिर इतना पढऩे के बावजूद हम अपने पैरों पर खड़ा क्यों नहीं हो पाते? जवाब मिलता है, तो आंखे खुल जाती हैं। हमारा एजूकेशन सिस्टम खुद को बनाया हुआ नहीं बल्कि अंग्रेजों की गुलामी वाला है। उस गुलामी के दौर में अगर हम अच्छा पढ़लिख लेते थे तो भी अंग्रेज अपने गुलाम बनाकर ही नौकरी देते थे। वहां प्रेक्टिकल पर इसलिए ज्यादा जोर नहीं दिया जाता था, क्योंकि यह किसी के भी अपने पैरों पर खड़ा होने की पहली सीढ़ी है। मुझे बड़ा आश्चर्य होता है, यह देखकर कि हम आजाद होने का ढोंग रचते हैं लेकिन आज तक अपनी आजादी वाला एजूकेशन सिस्टम तैयार नहीं कर पाए। जापान जैसे छोटे देश अपनी राष्ट्रीय भाषा के दम पर पूरी दुनिया में अपना लोहा मनवा रहे हैं लेकिन हम हैं कि अंग्रेजी से अपना दामन छुड़ा ही नहीं पा रहे हैं। हमारी मातृभाषा, राष्ट्रभाषा हिंदी आज भी हमसे दूर ही है। हालांकि एजूकेशन सिस्टम में लगातार परिवर्तन करने की बड़ीबड़ी बातें हो रही हैं लेकिन आज भी हम प्रेक्टिकल रीडिंग से कोसों दूर हैं। हमें यह सोचना होगा कि अमेरिका जैसे विकसित देशों में युवा, ग्रेजुएशन में एडमिशन के साथ ही किसी न किसी रोजगार से जुड़ जाता है लेकिन हमारा ग्रेजुएशन करने वाला स्टूडेंट आज भी अपने कॅरियर को लेकर ऊहापोह की स्थिति में दिखाई देता है। विदेश में पोस्ट ग्रेजुएशन करने वाला छात्र बहुत अच्छी तरह से अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है लेकिन हमारा पोस्ट ग्रेजुएट आज भी सरकारी नौकरी की राह ताकता है। हमारे अशोक अंकल आज भी आइसक्रीम बेचकर अपनी आजीविका चला रहे हैं। देश में और भी न जाने कितने लाखों, करोड़ों सपने इस एजूकेशन सिस्टम की वजह से गुमनामी के अंधेरों में कैद होकर रह गए है।
Thursday, October 21, 2010
आम आदमी हो तो मरो
बात जरा पुरानी है लेकिन मेरे जेहन की यादों में आज भी ताजा है। हो भी क्यों न, आखिर मैंने अपनी आंखों के सामने वीआईपी का रौब और आम आदमी पर इसकी मार जो देखी थी। तब मैं ग्रेजुएशन कर रहा था। एक दिन सड़क से गुजर रहा था कि पीछे से वीआईपी काफिले का हूटर सुनाई दिया। मैं यह तो नहीं जानता कि इस फ्लीट में कौन जनता के वोटों से जीता वीआईपी नेता था लेकिन जो मैंने देखा, उससे मैं बहुत आहत हुआ। दरअसल इस काफिले की आवाज धीरेधीरे साइकिल चलाने वाले उस मजबूर बूढ़े कानों को सुनाई नहीं दी। बस उसकी खता ये थी कि उसके कान इसे महसूस नहीं कर पाए। नतीजा काफिला उसकी साइकिल के पास पहुंचा। काफिले में सबसे आगे चल रही पुलिस की गाड़ी में बैठे पुलिस भी वीआईपी की खातिरदारी में आम आदमी का दर्द भूल गए। कार के साइकिल के पास पहुंचते ही कार में से एक राइफल बाहर निकली। मैं पूरा नजारा अपनी आंखों से देख रहा था। राइफल निकली और अगले ही पल वापस अंदर चली गई लेकिन यह राइफल उस बूढ़े और उसकी साइकिल को सड़क से पांच फिट दूर गिरा गई। इस वीआईपी रौब ने मुझे अंदर तक हिला दिया। काश मेरे वश में होता तो मैं उस वीआईपी को उससे माफी मांगने के लिए जरूर रोक लेता। काफिला चला गया लेकिन माजूर को दे गया वो जख्म जो शायद वह कभी नहीं भूल सकेगा। खैर मैंने उसे सहारा देकर उठाया तो वह चला गया। मैं अक्सर देखा करता हूं कि कोई भी वीआईपी काफिला जाता है तो पूरा सिस्टम रोक दिया जाता है। आखिर जनता के वोट से वीआईपी बनने वाले यह लोग कब इस जनता का दर्द समझेंगे। अरे इनसे अच्छे तो वो विदेशी हैं, जहां वीआईपी के जाने की कानोंकान खबर भी नहीं होती। अब आपके दिमाग में एक सवाल आना जायज है, आखिर वीआईपी है तो सुरक्षा की जिम्मेदारी भी बनती है। अरे जब आप ट्रेफिक रोक देंगे तो हर किसी को पता चल जाएगा कि यहां से कौन गुजरने वाला है। अगर सबकुछ सामान्य तरीके से चलाएंगे तो मेरे ख्याल से कम दिक्कतें होंगी। यह बात मुझे आज इसलिए ज्यादा याद आ रही है, क्योंकि आज मेरी बाइक एक घंटे तक वीआईपी के जाम में फंसी रही। खैर हमारी तो कट जाएगी, लेकिन चिंता इस बात की है कि हमारा सिस्टम कैसे सुधरेगा?
Tuesday, October 19, 2010
शायद यही प्यार है?
मैं ऑफिस का काम निपटाकर घर निकलने की तैयारी में ही था कि शर्मा जी का फोन आ गया। शर्मा जी फोन पर काफी गुस्से और उत्साह में मालूम हो रहे थे। मैंने कूल माइंड से शर्मा जी का फोन रिसीव किया तो उधर से काफी जल्दबाजी भरी हैलो हुई। इसके बाद शर्मा जी ने मुझे निकट ही एक जगह पर आमंत्रित किया। चूंकि घर जाने की जल्दी थी तो मैंने शर्मा जी से वजह पूछी। इसके बाद शर्मा जी ने निहायत ही गुस्से में एक लड़की की असफल प्रेम कहानी मुझे बता डाली। मामले की संगीनता को देखते हुए मैंने शर्मा जी को ऑफिस ही बुला लिया। वह अपने एक साथी के साथ ऑफिस में आए। उनके चेहरे पर गुस्से के भाव साफ झलक रहे थे। उनके साथ एक निहायत ही कमजोर सी लगने वाली वो लड़की और उसका भाई भी था। शर्मा जी ने बताया कि यही वो लड़की है, जिसका आशिक उसे छोड़कर चला गया। अब वह लगातार उसे और उसकी फैमिली को टॉर्चर कर रहा है। शर्मा जी को गुस्सा इसलिए था कि उनके पड़ोस में रहने वाली बिन बाप की इस बच्ची की वजह से वह सिरफिरा आशिक सबको गालीगलौच करके गया था। खैर, मैंने उस लड़की से बात करनी शुरू की तो उसने बताया कि उसका अफेयर चार साल से चल रहा है, लेकिन उसके प्रेमी ने अब शादी की बात से मुंह फेरना शुरू कर दिया है। मैं अगर उसे प्रेशर करती हूं तो वह मुझे मारता है। सिरफिरे प्रेमी के हौंसले इस कदर बुलंद हो गए हैं कि सोमवार को वह पूरे परिवार को मारपीट और गाली गलौच कर गया। शर्मा जी मुझ पर एंटी खबर छापने का दबाव बनाने की कोशिश कर रहे थे। फिर भी मैंने लड़की से अलग में बात करना मुनासिब समझा। बात की तो रोते हुए उसने अपने प्रेमी का नाम न छापने की गुहार लगाई। जब उसे बताया गया कि पुलिस केस होने पर उसके प्रेमी को जेल भी जाना पड़ सकता है तो उसने मामला न छापने की जिद पकड़ ली। अब हमें कोई जिद तो थी नहीं, जो हम छापते। लेकिन इस प्रेमिका का अपने प्रेमी के प्रति यह प्यार और समर्पण वास्तव में चौंकाने वाला था। चार साल पुराना प्रेमी पूरे सपने बुनने के बाद जब शादी से साफ इंकार कर देता है तो एक समर्पित प्रेमिका के लिए इससे ज्यादा दुख की बात कोई हो ही नहीं सकती। लेकिन यहां यह प्रेमिका इतना सब होने के बावजूद अपने प्रेमी को बचाने पर जुटी थी। मैं भी नहीं समझ पा रहा हूं कि यह सही था या गलत, लेकिन इससे एक बात तो साफ हो गई कि शायद इसी का नाम प्यार है। सिरफिरे आशिक की यह प्रेमिका और उसका यह प्यार मुझे ताउम्र याद रहेगी।
Monday, October 18, 2010
वाह री टीआरपी, समाज का बेड़ा गर्क करके छोड़ेगी
टीआरपी, वह शब्द जो एक टीवी चैनल के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। हो भी क्यों न आखिर इनकी रोजी रोटी जो इसकी के जरिए आती है। यह शब्द आजकल कुछ ज्यादा ही महत्वपूर्ण हो गया है। टीआरपी के फेर में हम और हमारे समाज को क्या दिशा मिल रही है, इससे किसी को कोई मतलब नहीं है। ताजा उदाहरण है, एक टीवी चैनल पर शुरू हुआ एक रियलिटी शो। इसमें राखी सावंत इंसाफ कर रही है। हम राखी सावंत की बुराई नहीं कर रहे हैं, न ही हम अपनी रोजी रोटी का जरिया बनाने वाले चैनल की बुराई कर रहे हैं। हम बुराई कर रहे हैं उन लोगों की, जिनके घर के झगड़े अब सड़कों पर नहीं बल्कि दूसरों के घरों तक पहुंच रहे हैं। चैनल पर शो की शुरुआत जिस मामले से की गई, वह बेहद चिंताजनक है। इसमें दिखाया गया है कि खुद को भाईबहन स्वीकार करने वाले महिला और पुरुष एक स्टिंग ऑपरेशन में संगीन अवस्था में दिखाई दे रहे हैं। यानी अब बेहूदगी का यह नंगा नाच बड़ी सेलिब्रिटीज से लेकर आम आदमी तक पहुंच चुका है। हर समाज की रीढ़ की हड्ड़ी मानी जाने वाली इस आम जनता को अब अपने परिवार, समाज और रिश्तों की कोई फिकर नहीं रह गई है। नतीजा हम इनके अवैध रिश्तों को टीवी के माध्यम से अपने घरों में खुद तो देख ही रहें हैं साथ ही अपनी नई पीढ़ी को भी दिखा रहे हैं। बुजुर्ग कहते थे कि घर में पतिपत्नी के बीच सौ तरह की लड़ाईयां होती आई हैं, इन्हें किसी बाहरी व्यक्ति से शेयर नहीं करना चाहिए, लेकिन यहां तो पति पत्नी तो दूर लोग अब अवैध रिश्तों पर दुनिया के सामने इंसाफ मांग रहे हैं। हालांकि हमारे समाज में आज भी एक तबका इसका उद्धार करने वाला बचा हुआ है लेकिन जो नई दिशा हम पकड़ रहे हैं, वहां का भविष्य अंधकार से भरा हुआ है। चंचल मन वाला हमारा बच्चा अगर टीवी पर यह अवैध रिश्ते या फैमिली ड्रामा देख रहा है तो उसके मानस पटल पर चल रही उथल पुथल के लिए कौन जिम्मेदार होगा? कल जब वह इसी दिशा में जाएगा तो क्या होगा? आखिर हम इतने बेशर्म कब हो गए कि हमें अपने बच्चों और अपने समाज की बिल्कुल भी लिहाज नहीं रहा? यह ऐसे सवाल हैं, जिनके बारे में हमें और आपको सोचना नहीं बल्कि कुछ करना ही होगा। तभी जाकर हम बच सकते हैं, हमारे बच्चे बच सकते हैं, हमारा समाज बच सकता है।
Sunday, October 17, 2010
महिला है, बचके रहना रे बाबा
हम आज भी महिलाओं को दयनीय दृष्टि से देखते हैं। मैं खुद शोषित महिलाओं के पक्ष में रहता हूं। समाज की दयादृष्टि का पात्र यह महिलाएं दरअसल कानूनी रूप से लेकर हर तरह से मजबूत हैं। आपका एक कदम आपको कहां ले जाएगा कहना मुश्किल है लेकिन सुपर पावर महिला आपको कब और कहां, कैसे हालात में पहुंचा दे, यह कभी किसी ने नहीं सोचा है। हमारे संविधान ने महिलाओं को वास्तव में एक अलग पावर दी है। आज मैं जो वाकया लिख रहा हूं, अब से महज कुछ घंटे पहले ही मैं इसका शिकार हुआ हूं। दरअसल रविवार को शहर के एक स्कूल में पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का कार्यक्रम था। मेरी ड्यूटी डॉ. कलाम की कवरेज के लिए लगाई गई थी। कार्यक्रम में मसक्कली गीत से मशहूर हुए गायक मोहित चौहान भी थे। यंग जेनरेशन को रिप्रजेंट करने वाले हमारे न्यूज पेपर के लिए यह जरूरी था कि हम इस युवा गायक के दिल की बातें जाने। सो मैं पहुंच गया इस हस्ती के पास। मौके पर कई छात्राएं भी ऑटोग्राफ लेने के लिए आ खड़े हुए। मेरे मीडियाकर्मी साथी भी मौके पर मौजूद थे। इसी बीच एक छोटी से बच्ची मेरे पीछे खड़ी थी। उनके ठीक पीछे एक सभ्य सी दिखने वाली महिला भी खड़ी थी जो कि मशहूर गायक की झलक न मिलने की वजह से फ्रस्टेट नजर आ रही थी। इस बीच जब उस महिला को मैं राह की बाधा नजर आया तो उन्होंने जो तरीका मुझे हटाने का निकाला, मैं उससे आहत हूं। उन्होंने मुझ पर सीधे उस बच्ची को छेड़ने का आरोप लगा दिया। मैं बेचारा मर्द अब उस महिला को क्या जवाब दूं। हिंसात्मक रुख अपनाऊं तो मुश्किल और डांट दूं तो मुश्किल। बच्ची मुझे अंकल कहकर पुकार रही थी, लेकिन इस महिला ने एक पल में मेरे चरित्र पर सवाल खड़ा कर दिया। हालांकि मैंने अपनी भड़ास निकालने के लिए महिला को मुंहतोड़ जवाब दिया लेकिन मेरा जमीर अभी भी इसे पर्याप्त नहीं मान रहा है। मैं अगर महिला के साथ ज्यादा सख्ताई करता तो वह निश्चित तौर पर मेरे साथ कुछ और बुरा कर सकती थी। मैं बेचारा वहां किसेकिसे समझाता लेकिन उस महिला का यह रवैया मुझे ताउम्र पसंद रहेगी।
Thursday, October 14, 2010
बेटी आज भी उदासी लेकर आती है

नवरात्र चल रहे हैं, हर दिन अलगअलग मां की पूजा की जाती है। ऐसे में महिलाओं की वर्तमान दशा पर कुछ सोचने की बात आई तो बरबस ही मुझे पिछले साल का एक वाकया याद आ गया। मेरे पड़ोस में नेगी जी का परिवार रहता था। इस परिवार में चार लड़के थे। बड़े बेटे की शादी के बाद बहू पेट से थी। डिलीवरी के दिन नजदीक आने के साथ ही बहू की आवभगत भी बढ़ गई थी। सास तो जैसे बहू के पेट में अपना वंशज ही देखती थी। भाग्य में जो लिखा होता है, उसे कोई नहीं मिटा सकता। मध्यम श्रेणी के इस परिवार में भी भाग्य ने कुछ और ही लिखा था। डिलीवरी के दिन बहू को बड़े सम्मान भाव से अस्पताल में एडमिट कर दिया गया। इस बीच हम सबकी नजरें भी इस परिवार की उम्मीदों पर लगी हुई थी। डिलीवरी के कई दिनों बाद तक परिवार में एक अजब सी खामोशी छा गई। पूछने पर कोई बात करने को तैयार न था। मैं छुट्टी के दिन पड़ोसी होने के नाते हालचाल लेने पहुंच ही गया। घर में एक चारपाई पर मासूम सी बच्ची को उसकी दादी मां उदास भाव से खिला रही थी। बच्ची की मासूमियत इस कदर थी कि यह उदासी न चाहते हुए भी साफ झलक रही थी। मैंने बच्ची को देखा, शगुन के तौर पर कुछ पैसा दिया और सासू मां से मिठाई खिलाने की बात कही। उदास सासू मां के जख्मों पर जैसे मेरी बात ने नमक का काम किया। उन्होंने तपाक से जवाब दिया, ये हुई है, मेरी तो सारी उम्मीदें ही बेकार गई। मैं तो सोच रही थी कि खानदान का चिराग आएगा लेकिन बहू ने यह खर्चा पैदा कर दिया। खर्चा नहीं कई लाख की डिग्री है यह। सासू के महिला होने के बावजूद ऐसे कटु वचन मुझे अंदर तक हिला गए। आखिर एक महिला और मां कैसे महिला विरोधी हो सकती है। लेकिन यह एक सच्चाई थी उस जमाने की जहां हम लगातार मॉर्डन होने के दावे करते हैं, बेटियों को आगे बढ़ाने की बात करते हैं, लेकिन नतीजा आज भी ढ़ाक के तीन पात जैसा ही है। आज भी बेटे के होने पर ही ढ़ोल नगाड़े और मिठाई की रस्म निभाई जाती है। अरे, लानत हैं उन मांबाप पर जो आज भी बेटों को बेटी से ऊपर मानते हैं। ऐसे मांबाप को तो आज राष्ट्रमंडल खेलों में महिलाओं का शानदार प्रदर्शन देखकर डूब जाना चाहिए। देश को गोल्ड मेडल से लेकर दूसरे नंबर पर रखने वाली बेशक महिलाएं ही हैं। महिलाएं हालांकि आज भी बेचारी हैं लेकिन जब उन्हें मौका मिलता है तो वह अपना जलवा दिखा ही देती हैं।
Wednesday, October 13, 2010
ये कहां जा रहे हम???
पिछले दिनों की बात है, मुझे पैरेंटिंग पर हुए एक सेमिनार में भागीदारी करने का मौका मिला। पैरेंटिंग यानी बच्चों की परवरिश, आज के युग के युगलों की सबसे बड़ी समस्या। इस समस्या को सुनने और इसके निराकरण के लिए स्टेज पर बाकायदा कई विशेषज्ञ भी बुलाए गए। सेमिनार शुरू हुआ तो इसके बाद कई घंटे तक लगातार चलता रहा। मां अपनी बेटी के बदलते व्यवहार से नाराज थी तो पापा बेटे की आजादी से। एक मां ने बताया कि उनकी बेटी महज सात साल की है और अपने ब्वायफ्रेंड के साथ घूमने जाने की जिद करती है। मां के आंसू बता रहे थे कि वह अपनी बेटी में किस कदर अपना भविष्य देखती होंगी। खैर विशेषज्ञों ने अपनी महत्वपूर्ण राय दी। अब जो सीन सामने आया, उसने तो मेरे भी रोंगटे खड़े कर दिए। एक आधुनिकता का लबादा ओढ़े हुए मां जबर्दस्ती अपनी मजबूरी को अपनी बनावट के नीचे छिपाने की कोशिश कर रही थी। काफी देर तक मातापिता की अपनी औलाद को रोना रोने के बाद आखिरकार वह महिला भी इमोशनल हो ही गई। जब महिला इमोशनल हो जाती है तो तब वह न चाहते हुए भी बोलती चली जाती है। ऐसा ही हुआ उस महिला के साथ भी। महिला ने बताया कि वह कई सालों से दुबई में सैटल्ड है। इस बीच उसकी बेटी दस साल की हो गई। बेटी स्कूल में जाने लगी। बेटी का व्यवहार लगातार बदलता चला गया। इतना बदल गया कि अब बेटी, मां के बजाए अपने मेल फ्रेंड्स से मिलना और बातें करना ज्यादा पसंद करने लगी। मां ने काफी कोशिश की लेकिन कच्ची उमर में किसी को सही सलाह भी गलत ही नजर आती है। आखिरकार उस मां ने खुद को पश्चिमी संस्कृति के मुताबिक ढ़ालना शुरू किया। मां ने एक लैपटॉप खरीदकर सभी कम्यूनिटी साइट्स पर अपनी बेटी को अपनी फ्रेंड लिस्ट में शामिल किया। इसके बाद उसके प्रोफाइल पर उसके सभी फ्रेंड्स को भी अपना मित्र बनाया। अपनी बेटी को गलत रास्ते से बचाने के लिए उसके मित्रों से लंबीलंबी बातें की। बेटी तो यही चाहती थी। अपने संस्कार भूल चुकी बेटी इस कदर हाईटेक हो गई कि वह अपने मां और बाप के सम्मान को भी भूला बैठी। अब इस मां का दर्द यह था कि वह अपनी बेटी के साथ दो मिनट भी बैठकर बात नहीं कर सकती। बेटी अपने कमरे में बैठकर दोस्तों से चैटिंग करती रहती है और वह खाने का बुलावा भी अपनी बेटी को इंटरनेट के माध्यम से ही देती है, तब बेटी कमरे में खाना भेजने की इजाजत देती है तो मां उसके पास खाना पहुंचा देती है। इतनी कम उम्र में बेटी की इतनी दूरी उसे कहां लेकर जाएगी यह तो सोचने वाली बात है लेकिन भारतीय संस्कृति में पैदा हुए लोगों का इस कदर पश्चिमीकरण मैंने पहली बार देखा और सुना था। वास्तव में हम अपनी संस्कृति से लगातार दूर हटते जा रहे हैं। आधुनिकता के इस युग में अब चिंता इस बात की है कि हमारी नई पीढि़ इस हाईटेक और वेस्टर्न कल्चर के चक्कर में कहां जाकर रुकेगी? आज बेटी पापा की बात नहीं सुनती तो कल उसका भविष्य क्या होगा? बेटा, मम्मी को लगातार इग्नोर करता है तो कोई कुछ नहीं कर पाता। आपके लिए भी यह सवाल छोड़ रहा हूं कि आखिर हम कहां जा रहे हैं? कृप्या इस बात को गंभीरतापूर्वक सोचने के बाद ही इस पर अपना कमेंट लिखें.
Tuesday, October 12, 2010
बेचारी साइकिल बेचारे हम

पांच साल पहले की बात है जब घर से पत्रकारिता की पढ़ाई करने के लिए निकला था। तब घर छूटने के साथ ही मेरी हमजोली साइकिल भी मुझसे दूर हो गई थी। दिल्ली की भागदौड़ भरी जिंदगी में साइकिल नसीब से ऐसी दूर हुई कि आज तक मैं साइकिल की सवारी से दूर ही हूं। वक्त बीतता गया, साइकिल का बैलेंस और पैडल भी दिमाग से भूलता गया। आज अचानक साइकिल चलाने का मौका मिला तो मैं अपने इस अनुभव को शब्दों में बयां नहीं कर पा रहा हूं। आज जब पर्यावरणप्रेमी शर्मा जी साइकिल से मेरे पास आए तो मैं खुद को रोक नहीं पाया। मैं झट से साइकिल पर बैठ गया। इसके बाद पैडल मारा तो बैलेंस बनाना मुश्किल था। वैसे भी ज्यादातर समय बाइक पर गुजारने के बाद साइकिल चलाना अजीब सा अनुभव था। दिल कर रहा था कि मैं साइकिल से ही कहीं उड़ जाऊं। वहां, जहां मैं और मेरी आजादी हों, जहां मुझे कोई टोकने वाला न हो, जहां हर तरफ शांति हो, जहां सड़कों के लंबेलंबे जाम न हों। साइकिल के इस अनुभव ने एक पल में ही मेरी जिंदगी को पांच साल पीछे भेज दिया। तब खेत में साइकिल से जाने पर जो मजा आता था, वो शहर की इन खचाखच भरी सड़कों पर कहां। आज हम वक्त की रफ्तार से कंधे से कंधा मिलाकर चलने की होड़ में इस साइकिल को भले ही भूल गए हों लेकिन आज भी कई लोग इसे ही शान की सवारी समझते हैं। हम लगातार पर्यावरण बचाने की बातें करते हैं, पर्यावरण जागरुकता रैली को हरी झंडी दिखाकर रवाना करने के लिए कार से आते हैं, सोचने वाली बात तो यह है कि घर से महज कुछ पग की दूरी पर बने ऑफिस में बाइक या कार से जाना हम अपनी शान समझते हैं। बेचारी साइकिल ने खुद को जमाने के मुताबिक बदलने के लिए भले ही अपने अंदर गियर डाल लिए हों लेकिन दिखावे के इस जमाने में यह इंसानो से दूर ही है।
Monday, October 11, 2010
रौब का है जमाना
जमाना बदल रहा है। अब कोई मीडिया में काम करने वाला हो या किसी सरकारी विभाग में। अपनी यह पहचान वह दुनिया के सामने रखने में बिल्कुल भी हिमाकत नहीं करता। इसकी बेहतरीन नजीर है, दो साल पहले तक पान की दुकान करने वाले एक शख्स। देहरादून में रहने वाले इस शख्स का बेटा किसी लोकल स्तर के अखबार से जुड़ा था। बाप का झगड़ा हुआ तो बेटा तपाक से आ धमकता था। झगड़ा खत्म। बाप को यह बात जम गई तो उन्होंने झट से अपनी पान की दुकान पर ताला लटका दिया। अब पिताजी भी एक लोकल अखबार के संपादक हैं। तरक्की का सिलसिला जारी है। महाशय ने अब एक मारुति भी ले ली है और उस पर बड़े शब्दों में संपादक का बोर्ड भी लटका दिया है। श्रीमान अब शहर में बाइक लेकर निकलते हैं तो हेलमेट की जरूरत नहीं समझते। बेचारी ट्रेफिक पुलिस भी संपादक होने के नाते विवाद से बचना ही पसंद करती है। यह तो हुआ एक सामान्य सी पान की दुकान करने वाले का मीडिया रौब, लेकिन यह रौब सिर्फ मीडिया ही नहीं बल्कि दूसरी जगहों पर खूब देखा जाता है। पापा पुलिस में हैं तो बेटा बाइक पर बड़े अक्षरों में पुलिस लिखवाकर शहर में बिना हेलमेट के जमकर बाइक भांजता है। स्कूल का टीचर भी अब अपनी गाड़ी पर एजूकेशन डिपार्टमेंट लिखवाता है तो इंकम टैक्स ऑफिस में काम करने वाला इंप्लाई भी आयकर विभाग जरूर लिखवाता है। यहां तक तो सही था लेकिन रौब के जमाने की रफ्तार अपने सुरूर पर है। इसकी बानगी देखने को तब मिली जब एक मीडियाकर्मी का रिश्ते का साला भी अपनी कार पर प्रेस लिखवाकर चल पड़ा। कई सालों तक इसका इतना फायदा उठाया कि हम मीडियाकर्मी इसके बारे में सोच भी नहीं सकते। हद तो तब हो गई जब नगर निगम में कांट्रेक्ट पर काम कर रहे एक सफाई कर्मचारी ने अपनी बाइक पर नगर निगम बड़ेबड़े अक्षरों में लिखवाकर शहर में खूब मस्ती की। जब जनाब पकड़े गए तो दूध का दूध और पानी का पानी होने की वजह से वह पानीपानी हो गए। अब हम आपको बताते हैं कि यह रौब कई बार कितना भारी पड़ जाता है। हाल के दिनों में देहरादून में एक विधायक जी के साथ पुलिस ने मारपीट की। दरअसल मामला यूं था कि विधायक जी अपनी सत्ता की धौंस दिखा रहे थे। इस पर पुलिस भी अपनी हनक दिखाने लगी। बात बढ़ गई तो 'आन' पर आन पड़ी। फिर क्या था, पुलिस ने भी ले लिया विधायक जी को खोपचे में। इसके बाद भले ही कितना भी बवाल हुआ हो लेकिन यह सब मामला था रौब् का ही। यह सब उदाहरण बताते हैं कि अब हम चुपचाप रहने के बजाए अपने प्रोफेशनल का गीत पूरी जनता के सामने गाना चाहते हैं ताकि कल कोई अगर पकड़ भी ले तो वह समझ जाए कि उस पर हाथ डालना कितना मुश्किलों भरा हो सकता है।
Saturday, October 9, 2010
यह है समाज का काला चेहरा?

Friday, October 8, 2010
मुन्नी ही बदनाम क्यों हुई?
मुन्नी बदनाम हुई, डार्लिंग तेरे लिए...यह गीत आजकल हर एक की जुबान पर चढ़ा हुआ है। टीवी से लेकर मोबाइल तक इस गीत की बहार है। हर कोई झंडु बाम बनने के लिए बेताब सा दिखाई दे रहा है। गीत की खुमारी इस कदर है कि मीडिया में भी इस गीत को साक्षी मानकर खबरों की हेडिंग बनाने की पुरजोर कोशिश जारी है। सबकुछ ठीक है और होता आया है लेकिन किसी ने कभी यह सोचने की जरूरत नहीं समझी कि आखिर मुन्नी ही बदनाम क्यों हुई? मामूली से लगने वाले इस सवाल के पीछे जो सवाल छिपे हैं वह मॉर्डन कहलाने वाले इस युग में भी कहीं न कहीं महिला की इमेज की कहानी चीखचीखकर बयां कर रहा है। महिला, वैसे तो कवि की नजर में दो मात्राओं वाली होने के नाते नर पर भारी मानी गई है लेकिन समाज और हमारा नजरिया कुछ जुदा है। कवि कहता है कि 'एक नहीं दोदो मात्राएं, नर से भारी नारी', लेकिन सच्चाई आज भी वही है जो पुराने टाइम में महिलाओं को लेकर होती आई है। आज भी प्रोफेशनल महिला के चरित्र पर दाग लगने में दो पल भी नहीं लगते। आज भी अपने काम के चलते बॉस की वाहवाही लूटने वाली महिलाकर्मी को चरित्रहीन की उपाधि दे दी जाती है। इसकी बानगी मैंने खुद अपनी आंखों से देखी है। मेरा परम मित्र एक प्राइवेट कैमिकल कंपनी में जॉब करता है। मित्र से हर दूसरे दिन अगर बात न हो तो अजीब सा लगता है लेकिन इन दिनों वह जरा परेशान है। वजह बताने पर पहले हिचकता है लेकिन बाद में अपने दिमाग का पूरा फितूर मेरे सामने उगल देता है। उसने बताया कि पिछले महीने से उनकी कंपनी में एक लड़की की एंट्री हुई है। लड़की देखने में जितनी चंचल है, काम में भी उतनी ही फिट है। समस्या यहां हो गई है कि उस लड़की ने मेरे दोस्त की बॉस से नजदीकी और वाहवाही छीन ली है। इसकी वजह से मेरे प्यारे से दोस्त की जिंदगी का चैन छिन गया है। अंदर तक कुरेदने पर उसने बताया कि वह बॉस को जबर्दस्ती इंप्रेस करने पर लगी रहती है। इसकी वजह से बॉस के मन में भी शायद कुछ गलत फहमियां पैदा होने की वजह से उसके बॉस उसे इग्नोर करने लगे हैं। और गहराई तक जाने पर वह अपनी कलीग के बारे में जो बातें बताता है, वह मैं यहां नहीं लिख सकता, लेकिन उसकी बातों ने मेरे अंदर जो हलचल मचाई उसका सार बताता है कि मुन्नी ही बदनाम क्यों हुई है। क्या कईकई लड़कियों को नौकरी या दूसरे प्रलोभन देकर फलर्ट करने वाला बॉस बदनाम नहीं हो सकता। आज भी हमारा समाज महिलाओं को अपनी जूती के नीचे ही देखने का आदी है। हालांकि मैं भी एक पुरुष हूं लेकिन न जाने क्यों अपनी प्यारी सी और समर्पित पत्नी को याद कर मैं महिलाओं के प्रति सम्मान के नजरिए से भर जाता हूं।
Tuesday, October 5, 2010
जय हो ! सबकुछ बदल गया

१९वें कॉमनवेल्थ गेम्स की शुरुआत को लेकर खेल शुरू होने से पहले जो बेकरारी थी, वह अब खुशी में तब्दील होने लगी है। हमारे टेलेंट ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि भारत हो या दुनिया का कोई कोना, हम कहीं भी किसी से भी कम नहीं हैं। सुबह की शुरुआत अभिनव बिंद्रा और गगन नारंग के गोल्ड मेडल से हुई तो शाम होने तक भारत की झोली में सोने के तमगों की संख्या पांच हो चुकी थी। महीनों से कॉमनवेल्थ गेम्स की फजीहत करने पर जुटा मीडिया आज वाहवाही कर रहा था। इस फजीहत से बेशर्मी झेल रहे लोग भी आज गर्व महसूस कर रहे थे। भारत भूमि से पैदा हुए इस टेलेंट ने आखिर दुनिया को इंडिया की झलक जो दिखा दी। शाम को ऑफिस में जब पांचवे गोल्ड मेडल मिलने की खबर पता चली तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। दुनिया के कद्दावर खिलाड़ियों के सामने भारत की चुनौती सुविधाओं के लिहाज से भले ही कमजोर हो लेकिन गांधी के इस देश के युवा हर मुश्किल में भी हौंसला रखना जानते हैं। मैं दिल से सलाम करता हूं उन खिलाड़ियों को जिन्होंने मेरे देश और मेरा सिर गर्व से ऊंचा कर दिया है लेकिन आईना दिखाना चाहता हूं उस सिस्टम को जो कि खेल के सुधार के नाम पर महज अपनी जेबें भरने का काम करता है। जहां खेल और खिलाड़ियों के उत्थान के नाम पर मोटा पैसा लिया जाता है लेकिन नौकरशाह और हुक्मरान अपना उत्थान करने में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं। जय हो के उद्गार के साथ खत्म हुआ उद्घाटन समारोह आज मुझे दोबारा जय हो बोलने को उत्साहित कर रहा है।
Saturday, October 2, 2010
हम ऐसे सहेजतें हैं अपनी विरासतें
गांधी जयंती के मौके पर बापू की याद में हर साल हम जश्न मनाते हैं, कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं, नेताजी भी कार्यक्रमों में बतौर मुख्य अतिथि पहुंचकर बड़ीबड़ी बातें करते हैं। इसकी सच्चाई कुछ और ही है। जो दिखता है, वह कितना झूठ और फरेब होता है, इसकी झलक देखने को मिली देहरादून से महज ३० किलोमीटर दूर। बताया जाता है कि शहर से इतनी कम दूरी पर खारा खेत गांव में बापू ने १९३० ई। में नमक कानून तोड़ने के लिए नमक सत्याग्रह चलाया था। उनकी इस लड़ाई में गांव के लोगों ने भी बढ़ चढक़र हिस्सा लेते हुए पहाड़ से निकलने वाले नमक के पानी से नमक बनाया। इस जंग के लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा। आजादी मिली तो सबको गांधी के सपनों को पूरा होने का इंतजार था। सबको इंतजार था इस ऐतिहासिक जगह को एक नई पहचान दिलाने का। आज अर्सा बीत गया, लड़ाई में शरीक हुई वो पीढ़ी भी दुनिया से चल बसी। नई पीढिय़ां भी अपने बचपन से ही एक टूटे से स्मारक को देखती आ रही हैं, जिसका शिलान्यास १९८३ में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार के वित्त एवं योजना मंत्री ब्रहमदत्त ने किया था। तब इसे एक अलग पहचान दिलाने के लिए यहां सड़क तक की व्यवस्था भी करा दी गई थी। गांव के बलिदानी लोग भी सरकार और उसके नुमाइंदों की इस पहल से खुश थे। इन खुशी के पलों को सेलिब्रेट करने के लिए यहां हर साल की २० अप्रैल को एक मेला भी लगाया जाने लगा था। लेकिन अब यहां न तो कोई आने वाला है और न ही मेले की परंपरा बाकी रह गई है। इस राष्ट्रीय स्मारक के साथ ही मेले की परंपरा भी इतिहास के पन्नों में सिमट सी गई है। गांव के रहने वाले दीवान सिंह ने बताया कि यहां के पहाड़ से निकलने वाली पानी में आज भी नमक की उतनी ही मात्रा मौजूद है। आज भी जिन पत्थरों से पानी गुजरता है, वहां नमक की पर्त जम जाती है। अंग्रेजों ने भी इस पानी की खासियत को समझते हुए यहां नमक बनाने का काम शुरू किया था लेकिन आज यहां कोई पूछने तक नहीं आता। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगर उत्तराखंड की राजधानी के इतने निकटतम ऐतिहासिक स्थल पहचान को मोहताज है तो दूर दराज के बलिदान और ऐतिहासिक विरासतों का क्या हाल होगा।
जय हिंद...
जय हिंद...
Wednesday, September 29, 2010
फैसला आएगा लेकिन…
बाबरी मस्जिद का मामला पिछले कई दिनों से सुर्खियों में है। पढ़ा लिखा हो या बिजनेसमैन, हर कोई ६० साल लंबी इस लड़ाई का फैसला जानने को बेताब है। ऐसे में कई जगहों पर सांप्रदायिकता को लेकर भी पूरी सुरक्षा मुस्तैद कर दी गई है। गांव में रहने वाले अनपढ़ लोगों के लिए भी यह मामला कितना अहमियत रखता है, यह देखने को मिला पिछले दिनों। एक दिन की छुट्टी मनाने के लिए मैं गांव गया। गांव में कम ही जाना होता है, इसलिए खानदान से लेकर पड़ोसियों से मिलना एक रिवाज सा बना हुआ है। इसी रिवाज को निभाते हुए मैं पड़ोस में रहने वाले अपने बचपन के साथी के घर पहुंचा। बात २४ सितंबर से पहले की है। मैं जाकर बैठा ही था कि मेरे दोस्त की माता मेरे पास आकर बैठ गई। नौकरी से जुड़ी हर छोटी बात शेयर करने के बाद उनके मुंह से बाबरी मस्जिद का मामला भी निकल ही पड़ा। उन्होंने तपाक से कहा, बेटा, वहां पता नहीं कैसा माहौल है, अच्छा होगा कि इस दिन अपने घर पर ही रहे। वैसे भी अगर फैसला हमारे पक्ष में नहीं आता है तो इसके लिए मरना भी शहादत में शुमार होगा। उनका यह कट्टरवादी लहजा मेरे जेहन में एक शूल की तरह चुभता चला गया। ताई जी पुकारता हूं मैं उन्हें। मन में एक अजीब सी बेचैनी पैदा हो गई। मैंने आखिर अपनी अनपढ़ ताईजी से पूछ ही लिया। ‘ताईजी यह बाबरी मस्जिद वाला मामला क्या है?’ मेरा यह एक सवाल ताईजी की जुबान बंद करने के लिए काफी था। ताई जी के मुंह से एक शब्द नहीं निकला। इस बात पर मुझे बड़ा दुख हुआ कि जो लोग यह तक नहीं जानते कि बाबरी मस्जिद वाला मामला है क्या, वह इस कदर कट्टर होने पर क्यों तुले हैं। ऐसा कैसे संभव है कि हमें किसी झगड़े की जानकारी न हो और हम उसका हिस्सा बनें। बहरहाल मैंने ताईजी को अपने अंदाज में कंवेंस करते हुए बताया कि यह सब बेकार की बातें हैं। मामला कोर्ट में है, कोर्ट का फैसला ही सर्वोच्च होगा, इसलिए हमें अपने मन की इस गंदगी को दूर करते हुए कोर्ट के फैसले का सम्मान करना चाहिए। हालांकि ताई जी अनपढ़ होने की वजह से बहुत ज्यादा कंवेंस नहीं हो सकी लेकिन ताईजी के इस लहजे ने मेरे अंदर एक सवाल पैदा कर दिया कि आखिर लाखों लोगों को अभी तक भी इस बात की जानकारी क्यों नहीं है कि यह फैसला किस बात का है? आज मुझे बड़ी शिद्दत से वो पंक्तियां याद आ रही हैं, ‘हम आपस में लड़ बैठे तो देश को कौन संभालेगा….’
Saturday, September 25, 2010
ये मीडिया किस देश की है???

लंबी कोशिशों के बाद हमें राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी मिली। मेजबानी के टाइम पर हर कोई भारत की इस जीत को लेकर बेकरार दिखाई दिया। दे भी क्यों न, आखिर हमने इतने देशों को पीछे छोड़कर कॉमनवेल्थ की मेजबानी अपनी झोली में जो डाली थी। अर्सा बीत गया, मीडिया को भी याद नहीं रहा। इस बीच जैसे ही इस महाआयोजन का समय नजदीक आया तो मीडिया भी इसमें खबरें तलाशने लगी। थोड़े दिनों के बाद हमारे काबिल पत्रकारों ने कड़वी सच्चाई भी सामने लानी शुरू कर दी। वक्त बीतता गया, हर दिन एक नई चौंकाने वाली खबर सामने आती गई। सरकार और उसके नुमाइंदे भी मीडिया की इस कसरत पर हिल गए। यहां तक की बात तो सही थी, लेकिन अब मीडिया इन मामलों और अपनी मसालेदार खबर तलाशने के चक्कर में यहां तक भूल गई कि यह हमारे देश की इज्जत है। इस आयोजन के न होने की परिस्थिति में उसी देश की किरकिरी होगी, जहां यह मीडिया अपने संस्थान चला रही है। मैं हालांकि मीडियाकर्मी होने के नाते अपने काबिल साथियों की बुराई बिल्कुल नहीं कर रहा हूं, लेकिन मेरा मानना है कि मीडिया को अब जब आयोजन अपने चरम पर है, नेगेटिविटी पैदा करने के बजाए कुछ पॉजिटीव बातें भी सामने लानी चाहिएं। इस आयोजन की महत्ता कितनी है, इसकी सबसे बेहतर नजीर है हाल में खेल गांव का दौरा करने आए फेनेल ने दौरे के बाद की प्रतिक्रिया पूरी तरह से पॉजिटीव दी। ऐसा नहीं है कि उन्होंने जमीनी सच्चाई नहीं देखी होगी, बल्कि इसके पीछे का सच यह है कि इस आयोजन को सफल बनाने में उनका एक बयान बहुत महत्ता रखता है। इसी दूरगामी सोच को मानते हुए उन्होंने आल इज वेल बोल डाला। अब अगर दूसरे देश से आए परदेसी इस आयोजन की महत्ता को समझ रहे हैं तो हमारी मीडिया इस कदर खबरची बनने पर क्यों लगी है। ठीक है, मैं एक पत्रकार हूं, या फिर लोगों तक सरकारी नाकामी का सच लाना मेरे लिए एक मुहिम है लेकिन यह भी तो सोचना होगा कि हम इसी देश के बाशिंदे हैं। हमारे देश की शान पर उंगली उठना हमारी शान पर उंगली उठने के बराबर है। अगर फेनेल एक बयान नकारात्मक दे देते तो राष्ट्रमंडल खेलों से मुंह मोडने को तैयार बैठे कई देश तुरंत भागीदारी करने से इंकार कर देते, लेकिन फेनेल की इस दूरदर्शी सोच को अब हमें मानना ही होगा। हमें समझना होगा कि अब हमें किसी भी तरह से इस आयोजन को सफल बनाने की कोशिश करनी है। मेरी सभी मीडियाकर्मियों से अपील है कि वह शेरा का सीना गर्व से चौड़ा कर दें, ताकि कल अतिथि देवो भवः के देश में आने वाले परदेसी यहां की तारीफ करके वापस जाएं।
जय हिंद...
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