विचार कभी सामान्य नहीं होते

विचार तो मन में आते हैं लेकिन हम उन्हें सही दिशा नहीं दे पाते। अपनी आंखों के सामने हर पल कुछ नया देखते हैं लेकिन उसके बारे में सोच नहीं पाते, अगर सोचते हैं तो शब्दों में ढ़ालना मुश्किल है। शब्दों में ढ़ाल भी दें तो उसे मंच देना और भी मुश्किल है। यहां कुछ ऐसे ही विचार जो जरा हटकर हैं, जो देखने में सामान्य हैं लेकिन उनमें एक गहराई छिपी होती है। ऐसे पल जिन पर कई बार हमारी नजर ही नहीं जाती। अपने दिमाग में हर पल आने वाले ऐसे भिन्न विचारों को लेकर पेश है मेरा और आपका यह ब्लॉग....

आपका आकांक्षी....
आफताब अजमत



Saturday, May 8, 2010

आखिर क्या खता थी श्रुति की?

श्रुति घर से निकली तो रैली में भाग लेने के लिए थी लेकिन रन टू लिव की यह रैली उसके लिए रन टू डेथ बन गई. स्कूल ने अपने लेवल पर कुछ दिया तो यह कि उसकी फैमिली को एक ऐसा दर्द जिसके लिए वह हमेशा स्कूल को कोसते रहेंगे. चुलबुली सी दिखने वाली नन्हीं श्रुति देहरादून के एक स्कूल में ९वीं में पढती थी. उस सुबह श्रुति को स्कूल की एक रैली में हिस्सा लेना था, जिसके लिए वह अर्ली मॉर्निंग बिना कुछ खाए पीए ही घर से चली गई. घर के दरवाजे तक मां अपनी लाडली को कुछ खिलाने की बात कहती रही लेकिन श्रुति को लेट होने का डर सता रहा था. स्कूल से रैली सही टाइम पर शुरू हुई लेकिन हादसा तब हुआ जब रैली वापस लौट रही थी. कई हजार बच्चों की यह रैली रन टू लिव के नाम से आयोजित कराई जा रही थी. लेकिन एक लापरवाही ने इसे रन टू डेथ में बदल दिया. लापरवाही भी इस कदर कि मसूरी की ओर जाने वाले रास्ते पर एनआईवीएच के पास एक पेड़ कई दिन से धूधू कर जल रहा था. रैली से पहले की जाने वाली चेकिंग में यह पेड़ दिखाई भी दिया लेकिन फायर ब्रिगेड ने इसे हल्के में मानकर महज खानापूर्ति कर पानी डाल दिया। लेकिन यह लापरवाही बहुत महंगी साबित होने जा रही थी. जैसे ही बच्चों का झुंड उस पेड़ के पास पहुंचा तो जैसे विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा. कई दिनों से जल रहा यह पेड़ जैसे बच्चों का ही इंतजार कर रहा था. अचानक गिरा तो बच्चों में भगदड़ मच गई. जान बचाने को इधरउधर भ् ाागने लगे तो श्रुति ने अपनी जान पर खेलकर अपने फ्रेंड्‌स की जान क्या बचाई कि उसे इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी. श्रुति के मित्रों का कहना है कि श्रुति तो बच गई थी लेकिन जब उसने देखा कि हम फंस रहे हैं तो उसने भागकर हमें धक्का दे दिया. इससे हम तो बच गए लेकिन श्रुति पेड़ का शिकार हो गई. अब सवाल ये है कि आखिर श्रुति की गलती क्या थी, उसे पैदा करने वालों की गलती क्या थी, श्रुति ने अपनी बहादुरी का परिचय देते हुए कई और घरों के चिरागों की रोशनी तो बचा ली लेकिन आज श्रुति का खुद का घर अंधेर हो गया. घर की इकलौती संतान श्रुति के न होने से जैसे परिजनों पर पहाड़ टूट पड़ा. इस पर चिंताजनक बात ये कि जिस स्कूल की मनमानी की वजह से श्रुति को मौत के रास्ते पर भेजा गया, उसके किसी भी स्टाफ का कोई भी शख्स श्रुति के परिजनों के आंसू पोंछने नहीं आया. श्रुति के पिता हालांकि आगे तक लड़ाई लडऩे की बात कह रहे हैं, लेकिन क्या आपको लगता है कि उन्हें न्याय मिल पाएगा? कोई उनके साथ उठने को तैयार नहीं है, क्या उनकी यह गलती है कि उन्होंने एक बेटी का जन्म दिया है, या फिर यह कि पब्लिक स्कूलों के सामने कोई और मां बाप मुंह खोलने की हिमाकत नहीं कर पाते. बात कुछ भी हो लेकिन प्रशासन और पब्लिक स्कूलों की वजह से एक घर का चिराग, उम्मीदें, रोशनी हमेशा के लिए कहीं खो गई.

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