विचार कभी सामान्य नहीं होते

विचार तो मन में आते हैं लेकिन हम उन्हें सही दिशा नहीं दे पाते। अपनी आंखों के सामने हर पल कुछ नया देखते हैं लेकिन उसके बारे में सोच नहीं पाते, अगर सोचते हैं तो शब्दों में ढ़ालना मुश्किल है। शब्दों में ढ़ाल भी दें तो उसे मंच देना और भी मुश्किल है। यहां कुछ ऐसे ही विचार जो जरा हटकर हैं, जो देखने में सामान्य हैं लेकिन उनमें एक गहराई छिपी होती है। ऐसे पल जिन पर कई बार हमारी नजर ही नहीं जाती। अपने दिमाग में हर पल आने वाले ऐसे भिन्न विचारों को लेकर पेश है मेरा और आपका यह ब्लॉग....

आपका आकांक्षी....
आफताब अजमत



Wednesday, July 7, 2010

मैं और रेनकोट

कुछ दिनों के इंतजार के बाद आखिर मानसून ने देहरादून में भी दस्तक दे ही दी। पहले की एक दो बारिश में तो मैंने खूब एन्जॉय किया, लेकिन अब जब मानसून जवान होता दिखाई दे रहा है तो मेरी परेशानी बढ़ती ही जा रही है। हर साल की तरह इस साल भी मैंने एक रेनकोट खरीदने का मन बनाया। सडक़ पर भरी बारिश में रिपोर्टिंग के लिए निकलता तो रेनकोट और छाता लिए लोग जैसे मुझे मुंह चिढ़ाते। एक दिन बारिश के पानी में सराबोर जब मैं ऑफिस पहुंचा तो खुद को लज्जा का अनुभव हुआ, क्योंकि दूसरे साथी रेनकोट होने की वजह से पानी के प्रकोप से काफी हद तक बच गए थे। बारिश की चर्चा चली तो सबकी नजर मेरे भीगे हुए कपड़ों पर गई। एक साथी ने तो रेनकोट लेने की सलाह भी दे डाली। अभी फिर से मेरे रेनकोट लेने के विचार को चार पंख लगे ही थे कि मेरे साथी फोटोग्राफर अरुण सिंह ने मार्केट के बजाए कैंटीन से किसी परिचित से रेनकोट मंगाने की बात कहकर इस जोश पर फिर ब्रेक सा लगा दिया। मैंने तुरंत ही मार्केट से रेनकोट खरीदने का प्लान त्याग दिया। कैंटीन से रेनकोट तो नहीं आ पाया, सुबह एक बार फिर मानसून मेरा भीगने के लिए स्वागत कर रहा था। एक बार फिर मुझे बारिश में नहाते हुए ही ऑफिस पहंचुना पड़ाा। लेकिन इस बार मैंने मार्केट से रेनकोट खरीदने का पूरा इरादा कर ही लिया था। मन में मार्केट से खरीदे जाने वाले रेनकोट की कल्पना भी कर ली थी, कि शाम को इसी कल्पना के साथ मैं बिना रेनकोट के ही ऑफिस पहुंचा। थोड़ी देर के बाद मेरे एक साथी ने रेनकोट पहने हुए ऑफिस में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई तो मेरा रेनकोट खरीदने का निश्चय उन्हें देखकर और प्रबल हो गया। लेकिन जैसे ही उन्होंने रेनकोट अपने शरीर से उतारा तो उनके कपड़े आंशिक रूप से पानी से सराबोर थे। रेनकोट को लेकर पहले से ही बेकरार मैं पहुंच गया अपने रेनकोटी साथी के पास। पहले तो मैंने हाथ से छूकर उसका रेट पूछा तो महज डेढ़ सौ रुपए कीमत ने मेरे रेनकोट खरीदने के इरादे को और पक्का कर दिया। लेकिन जब मेरी निगाह उनके भीगे हुए कपड़ो पर गई तो एक बार फिर मेरे रेनकोट खरीदने के हौंसले पस्त होने लगे. साथ में बैठे कुछ और साथियों में चर्चा करते हुए कहा कि रेनकोट होने के बावजूद कपड़े भीग जाते हैं साथ ही अचानक मौसम सही हो जाने पर रेनकोट को ढ़ोना भी पड़ता है। साथियों की यह बात मेरे दिमाग में बैठ गई और एक बार फिर मैंने खुद को मानसून की इस बारिश के हवाले कर दिया। इस तरह मैं रेनकोट तो खरीद नहीं सका लेकिन रेनकोट के बारे में काफी कुछ जान गया।

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