विचार कभी सामान्य नहीं होते

विचार तो मन में आते हैं लेकिन हम उन्हें सही दिशा नहीं दे पाते। अपनी आंखों के सामने हर पल कुछ नया देखते हैं लेकिन उसके बारे में सोच नहीं पाते, अगर सोचते हैं तो शब्दों में ढ़ालना मुश्किल है। शब्दों में ढ़ाल भी दें तो उसे मंच देना और भी मुश्किल है। यहां कुछ ऐसे ही विचार जो जरा हटकर हैं, जो देखने में सामान्य हैं लेकिन उनमें एक गहराई छिपी होती है। ऐसे पल जिन पर कई बार हमारी नजर ही नहीं जाती। अपने दिमाग में हर पल आने वाले ऐसे भिन्न विचारों को लेकर पेश है मेरा और आपका यह ब्लॉग....

आपका आकांक्षी....
आफताब अजमत



Friday, August 6, 2010

अच्छा हुआ मैं नेता नहीं हूं


बचपन से भले ही पढऩे में बहुत ज्यादा टेलेंटिड न रहा हूं लेकिन मैंने कभी नेता बनने की ख्वाहिश नहीं पाली. पालता भी क्यों, मुझे गरीबों के हिस्से का टुकड़ा छीनने में कभी कोई दिलचस्पी ही नहीं रही. आज जब मैं पत्रकारिता में अपना कॅरियर बनाने की ओर अग्रसर हूं तो मुझे यह सोचकर बहुत अच्छा महसूस होता है कि मैं नेता नहीं हूं. मैं वो नहीं हूं जो अपने देश की इज्जत ताक पर रखकर विदेशी बैंकों में काला धन जमा करूं. मैं वो भी नहीं हूं जो दूसरे की इज्जत को ठुकराकर आम जनता की इज्जत के साथ खिलवाड़ करूं. मैं वो नहीं हूं जो कि देश की जनता के वोट पर राजनीति कर सरकारी योजनाओं में घोटाला करूं. मैं वो नहीं हूं जो कॉमनवेल्थ गेम्स जैसे सौभाग्यशाली मिले आयोजन में पैसा खाकर डकार भी न लूं. मैं ऐसा बनना भी नहीं चाहता. मैं लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का एक छोटा सा सेवक हूं. मैं यही बना रहना चाहता हूं. मैं चाहता हूं कि मेरे देश के नेता भी अपनी सोच में बदलाव लाएं.जनता के टैक्स और दूसरी तरह से जमा की गई रकम को अपने बाप का माल न समझें. मैं चाहता हूं कि मेरे देश का नेता अपनी तनख्वाह के दम पर राजनीति करे. वो चुनाव जीतने के बाद अपना बैंक बैलेंस बनाने के बजाए मेरे देश की भूखी प्यासी जनता की रक्षा करे और उनके हक को उन तक पहुंचाए. मैं चाहता हूं कि मेरे देश का नेता उन गांधीजी से कुछ प्रेरणा ले जिनके लिए देशसेवा एक धर्म था. मैं चाहता हूं कि मेरे मंत्रीजी अपने भत्ते और यात्रा खर्चों का इस्तेमाल उन इलाकों के लिए करें जहां मजबूरी की वजह से नक्सलवाद पैदा हो रहा है. उन भूखे इलाकों में जाएं जहां आज भी दो वक्त की रोटी नसीब में नहीं है. जिस टोन में ये वोट मांगते हैं उन्हीं वादों के साथ अपना पांच साल का टाइम पूरा करें. मैं चाहता हूं...लेकिन मेरे चाहने से कुछ नहीं होगा. कुछ होगा तो उन लोगों के चाहने से जो हर बार एक ही चुनाव चिन्ह को देखकर बटन दबा देते हैं. कुछ बदलाव होगा उन युवाओं से जो चाहते हुए भी राजनीति से दूरी बनाए रखते हैं. कुछ होगा तो उन नेताओं की सोच बदलने से जो जनता को सिर्फ अपने हाथ की कठपुतली मानते हैं. फैसला आपके हाथ.

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