विचार कभी सामान्य नहीं होते

विचार तो मन में आते हैं लेकिन हम उन्हें सही दिशा नहीं दे पाते। अपनी आंखों के सामने हर पल कुछ नया देखते हैं लेकिन उसके बारे में सोच नहीं पाते, अगर सोचते हैं तो शब्दों में ढ़ालना मुश्किल है। शब्दों में ढ़ाल भी दें तो उसे मंच देना और भी मुश्किल है। यहां कुछ ऐसे ही विचार जो जरा हटकर हैं, जो देखने में सामान्य हैं लेकिन उनमें एक गहराई छिपी होती है। ऐसे पल जिन पर कई बार हमारी नजर ही नहीं जाती। अपने दिमाग में हर पल आने वाले ऐसे भिन्न विचारों को लेकर पेश है मेरा और आपका यह ब्लॉग....

आपका आकांक्षी....
आफताब अजमत



Friday, December 24, 2010

हिंदू आतंकवाद पर इतना हल्ला क्यों???

हिंदू आतंकवाद, नाम जुबान पर आया तो जैसे बवाल होना शुरू। राहुल गांधी ने इसका नाम लिया तो विपक्षियों ने जैसे जान की आफत बना दी। अब यूपी के एक नेता आजम खां ने इसका नाम लिया तो सियासी भूचाल फिर अपने चरम पर आ गया। भगवा या हिंदू आतंकवाद को लेकर बवालों का यह सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। समझ नहीं आता कि इस शब्द पर इतनी आपत्ति क्यों है?
पिछले कुछ सालों में आतंकवाद के बदलते परिदृश्य पर नजर डालें तो बात साफ होती दिखाई दे रही है। कल तक जब कोई मुस्लिम कहीं आतंकवाद के शक पर गिरफ्तार किया जाता था तो उसे इस्लामिक आतंकवाद का नाम दिया जाता था। पड़ोसी देश पाकिस्तान के इस आतंकवाद ने हमें इस कदर झुंझलाहट से भर दिया कि अब इस्लाम का मतलब आतंकवाद ही नजर आने लगा। हर इस्लाम धर्म वाला कहीं न कहीं शक की निगाहों से देखा जाने लगा। आतंकवाद का दायरा बढ़ा तो कई हिंदू नाम और संगठन भी इसमें अग्रणी दिखाई दिए। यानी साध्वी प्रज्ञा का नाम हो या विस्फोट के आरोप में पकड़े गए दूसरे गैर मुस्लिमों का, हर कोई काम वही कर रहा है जो इस्लामिक आतंकवाद वाले आतंकवादी करते हैं। अब अगर मुस्लिम आतंकवादियों को इस्लामिक आतंकवाद की संज्ञा दी जाती है तो भला हिंदू आतंकवादियों को हिंदू आतंकवाद का नाम देने में बुराई क्या है। आज भी अगर एक मुसलमान किसी शक पर गिरफ्तार किया जाता है तो उसे मीडिया में भी आतंकवादी की संज्ञा साबित होने से पहले ही दे दी जाती है, जबकि अगर कोई हिंदू विस्फोट के शक में गिरफ्तार किया जाता है तो उसे आतंकवादी नहीं आरोपी कहा जाता है।
मैं दोनों धर्मों का दिल से सम्मान करता हंू और जहां तक मैं मानता हंू कि इस आतंकवाद शब्द से वास्ता रखने वाले लोगों का कोई धर्म ईमान ही नहीं होता। जो इंसान होता है उसके लिए तो सब बराबर होते हैं, चाहे हिंदू हो या मुसलमान। मेरा तो मानना है कि इस शब्दों को बढ़ावा देने वाली या तो हमारी मीडिया है या फिर हमाने वोट के पुजारी नेता। नेताओं ने एक जरा सी बात को इस कदर चढ़ा दिया है कि आम इंसानों में जहर भरने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। आखिर हम आम जनता को इस बात से क्या फर्क पड़ता है, हमारे पड़ोसी गुप्ता जी को कल हमारे साथ ही ईद मनानी है तो हमें भी उनके साथ ही दीवाली की खुशियों के पटाखे फोडऩे हैं. हमारा देश ऐसा है कि यहां लाख दीवारें खड़ी करने की कोशिश की गई हैं लेकिन हम सब कहीं न कहीं, किसी न किसी मंच पर एक ही खड़े दिखाई दिए हैं।

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