विचार कभी सामान्य नहीं होते

विचार तो मन में आते हैं लेकिन हम उन्हें सही दिशा नहीं दे पाते। अपनी आंखों के सामने हर पल कुछ नया देखते हैं लेकिन उसके बारे में सोच नहीं पाते, अगर सोचते हैं तो शब्दों में ढ़ालना मुश्किल है। शब्दों में ढ़ाल भी दें तो उसे मंच देना और भी मुश्किल है। यहां कुछ ऐसे ही विचार जो जरा हटकर हैं, जो देखने में सामान्य हैं लेकिन उनमें एक गहराई छिपी होती है। ऐसे पल जिन पर कई बार हमारी नजर ही नहीं जाती। अपने दिमाग में हर पल आने वाले ऐसे भिन्न विचारों को लेकर पेश है मेरा और आपका यह ब्लॉग....

आपका आकांक्षी....
आफताब अजमत



Sunday, February 6, 2011

बेचारा इतना महंगा और बेशकीमती अखबार

एक समाचार पत्र, जिसके तैयार होने में पैसा और मेहनत दोनों लगते हैं। समाचार पत्र का हम मीडिया जगत के लोगों के लिए जो ओहदा है, आम पाठक की नजर में वह इससे बिल्कुल अलग है। यह तब देखने को मिला, जब मैं सड़क किनारे खड़ा हुआ अपने एक मित्र के आने की प्रतीक्षा कर रहा था। मैं प्रतीक्षारत था तो एक थ्री व्हीलर मेरे पास आकर रुका। थ्री व्हीलर में तब सवारियां न होने की वजह से वह रुककर बीड़ी जलाने लगा। तभी मेरी नजर उसके स्टेयरिंग के पास पड़े एक अखबार पर गई। मेरे मन में तुरंत सवाल पैदा हुआ कि आखिर एक शख्स जो दिनभर सवारियों को बैठाने और उतारने में लगा रहता है, वह इस समाचार पत्र का अध्ययन कब करता होगा? अपने सवाल का जवाब पाने के लिए मैं भी तुरंत ही थ्री व्हीलर चालक के पास पहुंच गया। उसने जो जवाब दिया, वह वाकई चौंकाने वाला और मनोरंजक था।

मैंने विक्रम चालक से पूछा, भई तुम दिनभर तो सवारियों से घिरे रहते हो तो ऐसे में अखबार कैसे पढ़ पाते हो? विक्रम चालक ने जवाब दिया कि वह अखबार पढऩे के लिए नहीं खरीदता, बल्कि उसकी सवारियां अपना टाइम पास कर लें, इसके लिए खरीदता है। उसने यह भी बताया कि उसके लिए इस अखबार का यह फायदा है कि दिनभर जब सैंकड़ों सवारियों की आंखों से इसकी स्कैनिंग हो जाती है तो वह इससे हर सुबह की शुरुआत इस अखबार से अपने विक्रम के शीशे साफ करने के लिए करता है। यानी एक समाचार पत्र, जिसके निर्माण में 15 से 20 रुपए तक का खर्च आता है, एक आम पाठक के लिए उसकी औकात सिर्फ शीशा साफ करने की है।

अब सवाल यह है कि एक पाठक के लिए इससे ज्यादा औकात क्यों होनी चाहिए तो आपका जवाब भी दिए देता हंू। विदेशों से अगर हम तुलना करें तो वहां का रिक्शा मजदूरी करने वाला व्यक्ति भी अखबार का गहनता से अध्ययन करता है। मजदूरी के दौरान जब भी उसे फुरसत मिलती है तो वह अखबार पढऩे में उस वक्त का इस्तेमाल करना बेहतर समझता है, जबकि हमारे देश में आज भी इतनी निरक्षरता है कि कम पढ़े लोग भी अखबार को सिर्फ अपनी दूसरी जरूरतों के लिए प्रयोग में लाते हैं। उनके लिए अखबार का प्रयोग अपने ज्ञान में वृद्धि करने के बजाए अपने दूसरे कामों में करने का होता है। आखिर कब बदलेगा हमारा अंदाज, कब बदलेंगे हम? कब होगा इस अखबार का सही प्रयोग? ऐसे तमाम सवाल मन में लिए हुए मैं घर को चलता बना।

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