विचार कभी सामान्य नहीं होते

विचार तो मन में आते हैं लेकिन हम उन्हें सही दिशा नहीं दे पाते। अपनी आंखों के सामने हर पल कुछ नया देखते हैं लेकिन उसके बारे में सोच नहीं पाते, अगर सोचते हैं तो शब्दों में ढ़ालना मुश्किल है। शब्दों में ढ़ाल भी दें तो उसे मंच देना और भी मुश्किल है। यहां कुछ ऐसे ही विचार जो जरा हटकर हैं, जो देखने में सामान्य हैं लेकिन उनमें एक गहराई छिपी होती है। ऐसे पल जिन पर कई बार हमारी नजर ही नहीं जाती। अपने दिमाग में हर पल आने वाले ऐसे भिन्न विचारों को लेकर पेश है मेरा और आपका यह ब्लॉग....

आपका आकांक्षी....
आफताब अजमत



Sunday, December 23, 2012

औरतों को कहां मिला हक

औरत, तेरी यही कहानी...आज फिर वो शब्द याद आ गए। मामला जब औरत की आजादी का आता है तो कई तरह की प्रतिक्रियाएं आम हैं। कोई इसे धार्मिक तौर पर देखता है तो कोई सामाजिक तौर पर। कोई बड़ी महिला हस्तियों का वास्ता देकर इस सच्चाई से मुंह चुरा लेता है तो कोई इस पर शून्य भाव दिखाकर उदासीन नजर आता है। आखिर औरत को हमने आजादी दी है या नहीं। क्या औरत आज भी जिंदगी और समाज के बोझ उठा रही है, झेल रही है उस पुरुष मानसिकता को, जिसमें केवल पुरुष का ही वर्चस्व कायम रहा है। ऐसे तमाम सवाल एक शख्सियत से बातचीत के दौरान कायम हुए हैं, जिन पर आज आपको भी बहस करने की जरूरत है।

महिला, हक और जरूरत। तीनों एक दूसरे के पूरक हैं। हर किसी ने महिला पर अपना हक और अपनी जरूरत तो जरूर पूरी की लेकिन कभी उसे उसका हक देने का वादा पूरा नहीं किया। कई अक्खड़ किस्म के लोग महिला को नौकरियों में आरक्षण, राजनीति में आरक्षण के बहाने अपनी जय जयकार में विश्वास करते हैं। धार्मिक नजरिए से भी इस्लाम में पर्देदारी को गलत करार दिया जाता है। हिंदू धर्म में भी तो परदा होता है। एक महिला अगर बाहर निकलती है तो उसकी कामयाबी को किस नजरिए से देखा जाता है, उसे सब जानते हैं। महिला आज भी गुलाम है। गुलाम, वर्चस्व वाले पुरुष समाज की, गुलाम धार्मिक रीतियों का रोना रोने वालों की, गुलाम हम सबकी...कभी किसी ने यह नहीं सोचा कि हमने महिलाओं को आजादी कितनी दी है। हम उन्हें अपने से ऊपर की पोस्ट तो दे सकते हैं लेकिन इस पोस्ट पर पहुंचने के बाद उन्हें क्या झेलना पड़ता है, कहना मुश्किल है। एक महिला अधिकारी इन दिनों काफी हतप्रभ हैं। उनकी चिंता इस बात को लेकर है कि उनका वरिष्ठ उन पर गलत निगाह डालता है। अब बताइए, इस महिला को हमने हक दिया आगे बढऩे का लेकिन अपनी सोच को और भी संकीर्ण बना लिया। अरे इसे आजादी कैसे कहेंगे, जब हम ऊपर पोस्ट तक लाने के बावजूद महिला पर अपनी आंखे तरेरना बंद ही नहीं करते।

अब वक्त आ गया है कि हम भी महिलाओं को उनका सही हक दिलाएं। अब यहां सही हक की क्या परिभाषा है, यह सबका अपना सोचने का अंदाज हो सकता है। लेकिन सही बात तो यह है कि जब हम अपनी पुरुषवादी संकीर्ण सोच से ऊपर उठकर उन्हें हक दिलाएंगे तो वो महिलाओं का सच्चा हक होगा। इस मौके पर फैज अहमद फैज की कुछ अशआर याद आ रहे हैं....

बोल के लब आजाद हैं तेरे
बोल जबान अब तक तेरी है
तेरा सुतावन जिस्म है तेरा
बोल के जन अब तक तेरी है
बोल के सच जिंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले

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