विचार कभी सामान्य नहीं होते

विचार तो मन में आते हैं लेकिन हम उन्हें सही दिशा नहीं दे पाते। अपनी आंखों के सामने हर पल कुछ नया देखते हैं लेकिन उसके बारे में सोच नहीं पाते, अगर सोचते हैं तो शब्दों में ढ़ालना मुश्किल है। शब्दों में ढ़ाल भी दें तो उसे मंच देना और भी मुश्किल है। यहां कुछ ऐसे ही विचार जो जरा हटकर हैं, जो देखने में सामान्य हैं लेकिन उनमें एक गहराई छिपी होती है। ऐसे पल जिन पर कई बार हमारी नजर ही नहीं जाती। अपने दिमाग में हर पल आने वाले ऐसे भिन्न विचारों को लेकर पेश है मेरा और आपका यह ब्लॉग....

आपका आकांक्षी....
आफताब अजमत



Thursday, December 27, 2012

सांप्रदायिक सौहार्द के दुश्मन थे अंग्रेज

अंग्रेजों ने हमारे मुल्क को सबकुछ दिया। सोने की चिडिय़ा को कंगालों की फौज में तब्दील करने में भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। इन सबके बीच सबसे अहम बात है, कि अंग्रेजों ने एक ऐसा दर्द हमेशा के लिए दे दिया, जिसकी दवा कोई नहीं। शायराना अंदाज में कहते हैं न कि दर्द भी ऐसा दिया, जिसकी दवा कोई नहीं। यह दर्द है सांप्रदायिकता का दर्द। इतिहासकारों ने इसमें अहम रोल प्ले किया है। इतिहास ने हमेशा से ही ऐसे तथ्यों को वरीयता दी जो कि सांप्रदायिकता को बढ़ावा देते हैं। जबकि ऐसे तथ्य हमेशा के लिए गायब कर दिए, जो कि हमारे देश को एकता के सूत्र में पिरोते हैं।

मैं भी इस मामले में प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन मरकडेय काटजू के विचारों से सहमत हंू। एक कार्यक्रम में उन्होंने भारतीय इतिहास पर सवाल उठाते हुए कहा है कि 'भारतीय इतिहासकार अंग्रेजों की बात को ही आगे बढ़ा रहे हैं, जिन्होंने इतिहास में हिंदू और मुस्लिमों को लड़ाने की बातें लिखीं।' उन्होंने यह भी कह दिया कि देश में हिंदू और मुसलमान 1857 तक धर्मनिरपेक्ष थे लेकिन गलत इतिहास के कारण अब उनमें से 80 फीसद सांप्रदायिक हैं। सांप्रदायिकता के लिए उन्होंने नेताओं को भी जिम्मेदार बताया। उन्होंने कहा, अंग्रेजों ने उन बातों का जिक्र इतिहास में दर्ज नहीं किया, जिससे देश में सौहार्द का माहौल बनता। तर्क दिए कि इतिहास की किताबों में बताया जाता है कि महमूद गजनवी ने सोमनाथ मंदिर तोड़ा जबकि उनके बाद पीढ़ी ने धर्मनिरपेक्ष होकर मंदिर बनाने को जमीन दान दी। नवाब अवध होली खेलते थे और ईद में उनके यहां हिंदू जाया करते थे। टीपू सुल्तान 156 मंदिरों को सालाना अनुदान दिया करते थे। ये सभी बातें इतिहास की किताबों से नदारद हैं और उन्हें कभी बताने की कोशिश भी नहीं हुई।

सांप्रदायिकता के इस मामले पर आज कॉलेज के दिनों की गुरुजी की सुनाई हुई चंद पंक्तियंा भी याद आ रही हैं....

कहीं मंदिर बना बैठे, कहीं मस्जिद बना बैठे
अरे, तुमसे तो अच्छी है उन परिंदों की जात
जो कभी मंदिर पे जा बैठे, कभी मस्जिद पे जा बैठे।।

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