फेस्टिवल ऑफ लाइट का खुमार अभी हमारे दिलों-दिमाग पर खूब ही छाया हुआ है। हमारे घर के आंगन पटाखों के टुकड़ों से अभी भी भरे हुए हैं। मेरे पड़ोस में रोजगार तलाशने के लिए आए एक शख्स की प्लास्टिक की तिरपाल की बनी झोंपड़ी पर एक रॉकेट गिरने की वजह से आग लग गई। उस वक्त पति काम से बाहर गया हुआ था और झोंपड़ी में मां अपने एक नन्हें बच्चे को सुला रही थी। उस बच्चे को जो कि अभी इस दुनिया की अमीरी-गरीबी से अंजान है, उस मासूम को जो शायद कल रोटी के जुगाड़ के लिए अपने बाप की तरह संघर्ष करेगा। दूसरा बच्चा अपनी झोंपड़ी के सामने रहने वाले एक अमीर घराने की दीवाली को अपनी आंखों से देखकर खुशी का अहसास कर रहा था। मैंने शाम को आग लगने के बाद हुआ हो-हल्ला सुना तो घर से बाहर आ गया। देखा एक अबला सी नारी अपनी झोंपडी की आग बुझाने के लिए पानी की बाल्टी डाल रही थी। हालांकि आग कम ही लगी थी, सो दो तीन पानी की बाल्टी से ही काबू में आ गई। इधर पेट की आग बुझाने के लिए रोटी का जुगाड़ करने गए पति और घर की आग बुझाने के लिए पत्नी की जद्दोजहद जारी थी तो उधर सामने वाले घर में पटाखों की आवाज लगातार बढ़ती जा रही थी। मैंने वहां पहुंचकर जितनी हो सकी, हेल्प की लेकिन अमीर लोग पटाखों की खुमारी में इस कदर बिजी थे कि कई घंटे तक उन्हें इसकी भनक तक नहीं लगी। यह देखकर मेरे मन को आघात लगा। लगा कि ऐसे फेस्टिवल किस काम के जिससे हम अपने आंगन में रोशनी करने के लिए दूसरों के घर जलाएं। पटाखे इतने जलाएं कि हमारे पड़ोस में रहने वाला मध्यम श्रेणी का परिवार शर्मा जाए क्योंकि उसका बजट इतना नहीं है कि वह इतने महंगे और इतने सारे पटाखे खरीद सके। मिठाईयां बांटना सही है लेकिन इसका दायरा अगर सिर्फ अपने अमीर दोस्तों तक ही हो तो क्या फायदा? मैं ऐसे ही चुभते हुए और उत्तरहीन सवालों के साथ अपने घर लौट आया।
1 comment:
बिल्कुल. ईद-उल-जुहा भी इसी श्रेणी में आता है. लाखों-करोड़ों जानवरों की हत्या कर दी जाती है...
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