हमारे नेता घोटाले कर विदेशी बैंकों में काला धन जमा कर रहे हैं। उद्योगपति विदेशी कंपनियों को खरीदने के साथ ही इतने आलीशान बंगले बना रहे हैं, जिनका बिजली का बिल भी एक महीने में 60 लाख रुपए तक पहुंचता है। दुनिया के सामने देश की एक अलग तस्वीर पेश की जा रही है। वह तस्वीर जिसमें सबकुछ चकाचौंध भरा है, जिसकी चमक इतनी है कि भारत की गरीबी कहीं गुम सी हो गई है। सरकारें लाख दावे कर रही है लेकिन नतीजा आज भी हमारे सामने है। इन दावों के गुबार से निकलने वाला धुंआ कहीं न कहीं घोटाले की बू लेकर आता है। वोट देने वाली जनता आज भी दो जून की रोटी के लिए तरसती है तो काहे का यंग इंडिया, काहे का पावरफुल इंडिया? आज जो मैंने देखा, अगर आप भी उसे महसूस करेंगे तो रो पड़ेंगे और कोसेंगे उन मुखियाओं को जिनके कंधों पर देश चलाने की जिम्मेदारी है, उस सिस्टम को जिसमें करप्शन अंदर तक इतना गहरा चुका है कि इससे बचने की कोशिश करने वाला भी इसमें डूबने से नहीं बच पाता।
कई दिनों से एक घर से एक खबर आ रही थी। खबर थी कि एक लड़की को घर चलाने के लिए ऑटो रिक्शा चलाने से लोगों ने मना कर दिया। इस पक्षपात भरी खबर को निष्पक्ष अंजाम तक पहुंचाने के लिए मैं उस घर में पहुंच गया। वहां जाने के रास्ते में मेरा स्वागत बदबू से हुआ तो भी आदत के मुताबिक मैं ज्यादा अनकंफर्ट नहीं हुआ। घर में एक जवान बेटी और एक बूढ़ी मां, बेटी के हाथ पीले करने की आस में हर पल दरवाजा ताकती दिखाई देती है। मैं अंदर पहुंचा तो शर्म और लज्जा का लबादा ओढ़े वह बेटी एक टूटे से कमरे में जाकर बैठ जाती है। मैं माताजी को नमस्ते करके वहां बैठ जाता हंू और पूरी बात पता करने की कोशिश करता हंू। माता जी मुझे अपना भगवान मानकर चाय पिलाने का आमंत्रण देती है लेकिन मैं अस्वीकार कर देता हंू।
मैंने परेशानी पूछनी शुरू की तो उन्होंने जो बताया, वह हमारे आज के इस सिस्टम, इस राजनीति और विकसित देश की बातें करने वाले विद्वानों के मुंह पर एक तमाचा है। बूढ़ी औरत ने बताया कि उसका एक बेटा है जो कि हाथ जलने के कारण मजदूरी से भी मजबूर हो चुका है। एक जवान बेटी है जो कि पहले रिक्शा चलाकर कुछ पैसे कमाती थी लेकिन अब जवान हो गई है तो समाज की तीखी निगाहों की वजह से यह भी बंद करना पड़ा। घर में एक किलो आटा तक नहीं है। घर पूरी तरह से जर्जर हो चुका है, इतना बेकार कि अब इसमें रात को लेटते समय सुबह को जिंदा बचने की कोई उम्मीद नहीं की जाती। आंसुओं को पोंछती हुई बताती है कि रात जब घर में आटा नहीं था और पैसे भी नहीं थे तो उन्होंने दस रुपए के सिंघाडे लेकर पेट भरा। राजधानी देहरादून में अगर वैध कालोनी में ऐसा घर आज भी बचा हुआ है तो यह हमारी नाकामी है। नाकामी है उन नेताओं की जो कि वोट मांगते समय बड़ी बड़ी बातें करते हैं, नाकामी है उस सिस्टम की, जिसमें करप्शन आज धर्म सा बन गया है। इसके बाद उस बूढ़ी औरत ने जितनी भी बातें बताई तो मैं अंदर से रो उठा। इस घर में कई दिनों से कई मीडिया वाले आ रहे हैं, फोटो अपने अलग-अलग एंगल से खींच रहे हैं, वीडियो बना रहे हैं लेकिन सहायता के नाम पर आज भी मिला है तो वह मजाक जो समाज ने बनाकर रख दिया है। हम, हमारा मीडिया वहां खबर तलाश रहा है लेकिन वह मुझसे हाथ जोड़कर रोते हुए कहती है कि अगर हमारी यह दशा अखबार या टीवी चैनल पर लोग देखेंगे तो मेरी बेटी का रिश्ता कैसे होगा? हमारी इज्जत तो खिलवाड़ बनकर रह जाएगी। मैंने उन्हें दिलासा देते हुए वैसे ही कुछ हेल्प करने की बात कहते हुए वहां से विदाई ली और मैं पूरे रास्ते अपने देश के महान नेताओं को कोसता हुआ आगे बढ़ गया।
1 comment:
बहुत ही मार्मिक यथार्थ चित्रण किया है आपने- सच में उन लोगों के मुंह पर एक जोर का चांटा जड़ दिया आप ने जो इस देश को एक विश्व शक्ति के रूप में चित्रित कर अपनी पीठ थपथपा रहे हैं. यह देश हमने 'चोर-उचक्कों के हाथों ' बर्बाद होने के लिए छोड़ दिया है . ये लोग तो उन डाकुओं से भी बदतर हैं जो अमीरों को लूट कर पैसा गरीबों में बाँट देते थे . उन डाकुओं की भी लूट की कोई सीमा थी - मगर इन्होने तो सभी सीमाएं तोड़ दी हैं.
चोरों का सरदार -फिर भी सिंह इमानदार.
तोहमतें आयेंगी नादिरशाह पर
आप दिल्ली रोज़ ही लूटा करें !!!!... उतिष्ठकौन्तेय
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