गांधी जयंती के मौके पर बापू की याद में हर साल हम जश्न मनाते हैं, कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं, नेताजी भी कार्यक्रमों में बतौर मुख्य अतिथि पहुंचकर बड़ीबड़ी बातें करते हैं। इसकी सच्चाई कुछ और ही है। जो दिखता है, वह कितना झूठ और फरेब होता है, इसकी झलक देखने को मिली देहरादून से महज ३० किलोमीटर दूर। बताया जाता है कि शहर से इतनी कम दूरी पर खारा खेत गांव में बापू ने १९३० ई। में नमक कानून तोड़ने के लिए नमक सत्याग्रह चलाया था। उनकी इस लड़ाई में गांव के लोगों ने भी बढ़ चढक़र हिस्सा लेते हुए पहाड़ से निकलने वाले नमक के पानी से नमक बनाया। इस जंग के लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा। आजादी मिली तो सबको गांधी के सपनों को पूरा होने का इंतजार था। सबको इंतजार था इस ऐतिहासिक जगह को एक नई पहचान दिलाने का। आज अर्सा बीत गया, लड़ाई में शरीक हुई वो पीढ़ी भी दुनिया से चल बसी। नई पीढिय़ां भी अपने बचपन से ही एक टूटे से स्मारक को देखती आ रही हैं, जिसका शिलान्यास १९८३ में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार के वित्त एवं योजना मंत्री ब्रहमदत्त ने किया था। तब इसे एक अलग पहचान दिलाने के लिए यहां सड़क तक की व्यवस्था भी करा दी गई थी। गांव के बलिदानी लोग भी सरकार और उसके नुमाइंदों की इस पहल से खुश थे। इन खुशी के पलों को सेलिब्रेट करने के लिए यहां हर साल की २० अप्रैल को एक मेला भी लगाया जाने लगा था। लेकिन अब यहां न तो कोई आने वाला है और न ही मेले की परंपरा बाकी रह गई है। इस राष्ट्रीय स्मारक के साथ ही मेले की परंपरा भी इतिहास के पन्नों में सिमट सी गई है। गांव के रहने वाले दीवान सिंह ने बताया कि यहां के पहाड़ से निकलने वाली पानी में आज भी नमक की उतनी ही मात्रा मौजूद है। आज भी जिन पत्थरों से पानी गुजरता है, वहां नमक की पर्त जम जाती है। अंग्रेजों ने भी इस पानी की खासियत को समझते हुए यहां नमक बनाने का काम शुरू किया था लेकिन आज यहां कोई पूछने तक नहीं आता। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगर उत्तराखंड की राजधानी के इतने निकटतम ऐतिहासिक स्थल पहचान को मोहताज है तो दूर दराज के बलिदान और ऐतिहासिक विरासतों का क्या हाल होगा।
जय हिंद...
जय हिंद...
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