विचार कभी सामान्य नहीं होते

विचार तो मन में आते हैं लेकिन हम उन्हें सही दिशा नहीं दे पाते। अपनी आंखों के सामने हर पल कुछ नया देखते हैं लेकिन उसके बारे में सोच नहीं पाते, अगर सोचते हैं तो शब्दों में ढ़ालना मुश्किल है। शब्दों में ढ़ाल भी दें तो उसे मंच देना और भी मुश्किल है। यहां कुछ ऐसे ही विचार जो जरा हटकर हैं, जो देखने में सामान्य हैं लेकिन उनमें एक गहराई छिपी होती है। ऐसे पल जिन पर कई बार हमारी नजर ही नहीं जाती। अपने दिमाग में हर पल आने वाले ऐसे भिन्न विचारों को लेकर पेश है मेरा और आपका यह ब्लॉग....

आपका आकांक्षी....
आफताब अजमत



Thursday, October 14, 2010

बेटी आज भी उदासी लेकर आती है


नवरात्र चल रहे हैं, हर दिन अलगअलग मां की पूजा की जाती है। ऐसे में महिलाओं की वर्तमान दशा पर कुछ सोचने की बात आई तो बरबस ही मुझे पिछले साल का एक वाकया याद आ गया। मेरे पड़ोस में नेगी जी का परिवार रहता था। इस परिवार में चार लड़के थे। बड़े बेटे की शादी के बाद बहू पेट से थी। डिलीवरी के दिन नजदीक आने के साथ ही बहू की आवभगत भी बढ़ गई थी। सास तो जैसे बहू के पेट में अपना वंशज ही देखती थी। भाग्य में जो लिखा होता है, उसे कोई नहीं मिटा सकता। मध्यम श्रेणी के इस परिवार में भी भाग्य ने कुछ और ही लिखा था। डिलीवरी के दिन बहू को बड़े सम्मान भाव से अस्पताल में एडमिट कर दिया गया। इस बीच हम सबकी नजरें भी इस परिवार की उम्मीदों पर लगी हुई थी। डिलीवरी के कई दिनों बाद तक परिवार में एक अजब सी खामोशी छा गई। पूछने पर कोई बात करने को तैयार न था। मैं छुट्‌टी के दिन पड़ोसी होने के नाते हालचाल लेने पहुंच ही गया। घर में एक चारपाई पर मासूम सी बच्ची को उसकी दादी मां उदास भाव से खिला रही थी। बच्ची की मासूमियत इस कदर थी कि यह उदासी न चाहते हुए भी साफ झलक रही थी। मैंने बच्ची को देखा, शगुन के तौर पर कुछ पैसा दिया और सासू मां से मिठाई खिलाने की बात कही। उदास सासू मां के जख्मों पर जैसे मेरी बात ने नमक का काम किया। उन्होंने तपाक से जवाब दिया, ये हुई है, मेरी तो सारी उम्मीदें ही बेकार गई। मैं तो सोच रही थी कि खानदान का चिराग आएगा लेकिन बहू ने यह खर्चा पैदा कर दिया। खर्चा नहीं कई लाख की डिग्री है यह। सासू के महिला होने के बावजूद ऐसे कटु वचन मुझे अंदर तक हिला गए। आखिर एक महिला और मां कैसे महिला विरोधी हो सकती है। लेकिन यह एक सच्चाई थी उस जमाने की जहां हम लगातार मॉर्डन होने के दावे करते हैं, बेटियों को आगे बढ़ाने की बात करते हैं, लेकिन नतीजा आज भी ढ़ाक के तीन पात जैसा ही है। आज भी बेटे के होने पर ही ढ़ोल नगाड़े और मिठाई की रस्म निभाई जाती है। अरे, लानत हैं उन मांबाप पर जो आज भी बेटों को बेटी से ऊपर मानते हैं। ऐसे मांबाप को तो आज राष्ट्रमंडल खेलों में महिलाओं का शानदार प्रदर्शन देखकर डूब जाना चाहिए। देश को गोल्ड मेडल से लेकर दूसरे नंबर पर रखने वाली बेशक महिलाएं ही हैं। महिलाएं हालांकि आज भी बेचारी हैं लेकिन जब उन्हें मौका मिलता है तो वह अपना जलवा दिखा ही देती हैं।

1 comment:

समयचक्र said...

आज के समय में बेटियां किसी से कम नहीं हैं ... बहुत बढ़िया भावपूर्ण अभिव्यक्ति...