विचार कभी सामान्य नहीं होते

विचार तो मन में आते हैं लेकिन हम उन्हें सही दिशा नहीं दे पाते। अपनी आंखों के सामने हर पल कुछ नया देखते हैं लेकिन उसके बारे में सोच नहीं पाते, अगर सोचते हैं तो शब्दों में ढ़ालना मुश्किल है। शब्दों में ढ़ाल भी दें तो उसे मंच देना और भी मुश्किल है। यहां कुछ ऐसे ही विचार जो जरा हटकर हैं, जो देखने में सामान्य हैं लेकिन उनमें एक गहराई छिपी होती है। ऐसे पल जिन पर कई बार हमारी नजर ही नहीं जाती। अपने दिमाग में हर पल आने वाले ऐसे भिन्न विचारों को लेकर पेश है मेरा और आपका यह ब्लॉग....

आपका आकांक्षी....
आफताब अजमत



Saturday, October 23, 2010

यहां एलएलबी पास आइसक्रीम बेचता है

मेरे बचपन के दोस्त संजय के चाचा अशोक कुमार, पढ़ाई एलएलबी, पेशा आइसक्रीम विक्रेता. यह प्रोफाइल है उस शख्स का जो कि एलएलबी करने के बावजूद आज तक आइसक्रीम ही बेचता है। बचपन से ही हम अशोक चाचा की आइसक्रीम खाते हुए बड़े हुए हैं तो आज मैं जो लिखने जा रहा हूं, वह उनके सम्मान में लिख रहा हूं। मैं अपने दोस्त के इस चाचा की पूरी कदर करता हूं। चाचा मुझे भी अपना दूसरा संजय ही मानते हैं। इस बार गांव गया तो उनसे फुर्सत के लम्हों में बात करने का मौका मिल ही गया। मैंने चाचा का अतीत खंगालना शुरू कर दिया। चाचा के चेहरे पर मायूसी छा गई और मन में एक कसक साफ दिखाई देने लगी। चाचा ने बताया कि वह सहारनपुर के जैन कॉलेज से ग्रेजुएशन कर रहे थे। इस दौरान रास्ते में कोर्ट पड़ता था तो एकदो वकीलों के पास भी उनका उठनाबैठना हो गया था। फिर न जाने कब चाचा को भी काला कोट पहनकर कानून का पक्षकार बनने की सूझ गई। ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद चाचा ने झट से एलएलबी में एडमिशन ले लिया। उन दिनों एलएलबी करना हालांकि बहुत बड़ी बात मानी जाती थी लेकिन यह एलएलबी उनके लिए आज तक बेरोजगारी की वजह बनी है। एलएलबी करने के बाद चाचा ने कोर्ट में ट्रेनिंग शुरू की, रजिस्ट्रेशन कराया लेकिन संघर्ष इतना था कि वह वहां टिक नहीं पाए। टिक भी जाते तो पता चला कि कोर्स की पढ़ाई और कोर्ट में कमाई में जमीनआसमान का अंतर होता है। अब चाचा ने तो सिर्फ किताबों में ही कानून पढ़ा था, प्रयोगात्मक तौर पर तो वह इसकी एबीसीडी भी नहीं जानते थे। काफी कोशिश की, कई वकीलों के चैंबर में हर रोज जूते घिसे लेकिन नतीजा आज भी बेरोजगारी। दरअसल चाचा जैसे ही हजारोंलाखों लोग इस देश में आज भी ग्रेजुएशन और पोस्टग्रेजुएशन कोर्स करने के बावजूद बेरोजगार हैं। इस सवाल को गंभीरता पूर्वक सोचा जाए तो एक सवाल खुद ही आ खड़ा होता है कि आखिर इतना पढऩे के बावजूद हम अपने पैरों पर खड़ा क्यों नहीं हो पाते? जवाब मिलता है, तो आंखे खुल जाती हैं। हमारा एजूकेशन सिस्टम खुद को बनाया हुआ नहीं बल्कि अंग्रेजों की गुलामी वाला है। उस गुलामी के दौर में अगर हम अच्छा पढ़लिख लेते थे तो भी अंग्रेज अपने गुलाम बनाकर ही नौकरी देते थे। वहां प्रेक्टिकल पर इसलिए ज्यादा जोर नहीं दिया जाता था, क्योंकि यह किसी के भी अपने पैरों पर खड़ा होने की पहली सीढ़ी है। मुझे बड़ा आश्चर्य होता है, यह देखकर कि हम आजाद होने का ढोंग रचते हैं लेकिन आज तक अपनी आजादी वाला एजूकेशन सिस्टम तैयार नहीं कर पाए। जापान जैसे छोटे देश अपनी राष्ट्रीय भाषा के दम पर पूरी दुनिया में अपना लोहा मनवा रहे हैं लेकिन हम हैं कि अंग्रेजी से अपना दामन छुड़ा ही नहीं पा रहे हैं। हमारी मातृभाषा, राष्ट्रभाषा हिंदी आज भी हमसे दूर ही है। हालांकि एजूकेशन सिस्टम में लगातार परिवर्तन करने की बड़ीबड़ी बातें हो रही हैं लेकिन आज भी हम प्रेक्टिकल रीडिंग से कोसों दूर हैं। हमें यह सोचना होगा कि अमेरिका जैसे विकसित देशों में युवा, ग्रेजुएशन में एडमिशन के साथ ही किसी न किसी रोजगार से जुड़ जाता है लेकिन हमारा ग्रेजुएशन करने वाला स्टूडेंट आज भी अपने कॅरियर को लेकर ऊहापोह की स्थिति में दिखाई देता है। विदेश में पोस्ट ग्रेजुएशन करने वाला छात्र बहुत अच्छी तरह से अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है लेकिन हमारा पोस्ट ग्रेजुएट आज भी सरकारी नौकरी की राह ताकता है। हमारे अशोक अंकल आज भी आइसक्रीम बेचकर अपनी आजीविका चला रहे हैं। देश में और भी न जाने कितने लाखों, करोड़ों सपने इस एजूकेशन सिस्टम की वजह से गुमनामी के अंधेरों में कैद होकर रह गए है।

4 comments:

निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

इसमें नया क्या है? जब विश्वविद्यालय थोक के भाव डिग्रियां बांटेगा तो ऐसा ही होगा.
अब तो विज्ञानं में फर्स्ट डिविज़न परास्नातक चतुर्थ श्रेणी के लिए आवेदन करते हैं.

Archana Chaoji said...

मैं भी हूँ एल.एल.बी.पास...और हर किसी को सलीम भाई और प्रमोद भाई भी तो मिलने चाहिये न...

विवेक रस्तोगी said...

सही समय पर सही मार्गदर्शन मिल जाये तो अच्छा है।

विवेक रस्तोगी said...

सही समय पर सही मार्गदर्शन मिल जाये तो अच्छा है।